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________________ इसीलिए करुणावन्त आचार्य परमेष्ठी कहते हैं थोड़ा सा कर्म सिद्धान्त भी पढ़ो। अध्यात्म सिद्धान्त नहीं है । अध्यात्म तो आत्मा के निकट पहुँचाने वाली एक भावना है। अगर कर्म की प्रक्रिया को समझोगे तो कर्मों में अपने आत्म परिणामों से, अपने पुरुषार्थ से उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण आदि प्रक्रिया होती है, इस बात को स्वीकार कर सकोगे। T हे जैनबन्धो! सम्पूर्ण विश्व के दर्शन और जैनदर्शन में एक मात्र विशिष्टता है तो कर्म सिद्धान्त की । कर्म सिद्धान्त का इतना व्यवस्थित, सूक्ष्म और प्रामाणिक वर्णन किसी भी दर्शन की सोच से परे है। कर्म सिद्धान्त में कर्मों के बन्ध और मोक्ष की प्रक्रिया सविस्तार वर्णित है। बंध और मोक्ष के सिद्धान्तों में जीव के परिणाम और कर्म के स्वभाव का वर्णन है। कर्म कभी इतना बलवान और अनुभाग शक्ति लिए रहता है कि जीव का पुरुषार्थ भी क्वचित् कदाचित् निष्फल रहता है। फिर भी लगातार जीव के पुरुषार्थ और विशुद्ध परिणामों से उन कर्मों पर भी जय पाई जाती है। जीवात्मा के संक्लेश और विशुद्धि से कर्म प्रक्रिया में अन्तर कैसे आता है यह कर्म सिद्धान्त को पढ़कर ही समझा जा सकता है। इस बंध, मोक्ष की प्रक्रिया में कहीं भी सर्वज्ञ ज्ञान के पराधीन होने की बात नहीं आती है। कर्म बंध, कर्म का फल और कर्म से मुक्ति, कर्मों की इन विविध अवस्थाओं में केवली का ज्ञान न बाधक है और न साधक है। इसलिए हे भव्यात्मन् ! तुम अपनी आत्मा के परिणामों की संभाल और कर्म बंध की प्रक्रिया पर विश्वास करके आगे बढ़ो, मंजिल तुम्हारा इंतजार कर रही है। आगे इसी प्रवचन की और विशेषता कहते हैं को अप्पा परमप्पा किंच भवभोगसरीरसब्भावं । सम्मं जो हि पयासइ तं पवयणं सया पणमामि ॥ ६ ॥ आतम का स्वरूप कैसा है, कैसा है परमातम रूप चतुर्गति में दुख सुख कितना क्या सुख बना मही का भूप । क्या शरीर है, क्या स्वभाव है, भोग सुखों में दुख का मूल श्री जिनवाणी प्रकट दिखाती शिव सुख का भी सम्यक् कूल ॥ ६॥ अन्वयार्थ : [ को ] कौन [ अप्पा ] आत्मा [ परमप्पा ] परमात्मा है [ भवभोगसरीरसब्भावं ] भव, भोग और शरीर का स्वभाव [ किंच ] क्या है [ जो ] जो [ सम्मं हि ] समीचीन रूप से [ पयासइ ] प्रकाशित करता है [ तं ] उस [ पवयणं ] प्रवचन को [ सया ] सदा [ पणमामि ] प्रणाम करता हूँ । भावार्थ : हे जिनपथानुगामिन् ! कौन आत्मा परमात्मा है, इस बात का सही ज्ञान भी दुर्लभ है। दुनिया में लोगों ने परमात्मा के विषय में कैसी-कैसी परिकल्पना कर रखी है। सभी परमात्मा को इस दुनिया को चलाने वाला एक महान् ड्राइवर मानते हैं। सभी मानते हैं कि ईश्वर की कृपा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता है । ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है। परमात्मा के विषय में दिङ्मूढ़ बने विश्व के लोग उस परमात्मा का सही परिचय नहीं रखते हैं । ईश्वर, खुदा,
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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