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________________ ग्रन्थों से जानना। हे जिनवाणी के आराधक! अभी तो केवल इतना समझो कि वर्तमान में जो कसायपाहुड़ और षट्खंडागम सूत्र ग्रन्थ हैं उनका सम्बन्ध इन्हीं अंग, पूर्व से है। षट्खंडागम सूत्रों को आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबली ने रचा है। कसायपाहुड़ सूत्र गाथा रूप हैं जिन्हें आचार्य गुणधर ने रचा है। इनमें षटखण्डागम सूत्रों पर आचार्य श्री वीरसेन महाराज ने जो विस्तृत व्याख्या की है उस व्याख्या का नाम उन्होंने श्रीधवल रखा है। वर्तमान में सोलह पुस्तकों में श्रीधवल ग्रन्थों का प्रकाशन हो चुका है। इसी तरह कसायपाहुड़ की जो व्याख्या (टीका) की है उसका नाम श्री जयधवल रखा है। श्री जयधवल की भी सोलह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जो अपने मूल स्वरूप में हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित हैं। इसी महाबन्ध को कोई-कोई महाधवल कहते हैं, किन्तु ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि मूल ग्रन्थ आचार्य भूतबली का है जिस पर आचार्य वीरसेन जी की कोई टीका नहीं है। ये सब उनतालीस (३९) ग्रन्थ हैं। श्रीधवल की १५वीं पुस्तक के पीछे एक 'सत्कर्मपंजिका' मूलरूप में संलग्न थी। इस पंजिका का अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं था सो उसका हिन्दी अनुवाद करने का सौभाग्य मुझे मिला। अभी-अभी इस ग्रन्थ का सोलापुर से प्रकाशन हुआ है। इस तरह सिद्धान्त ग्रन्थ की चालीस पुस्तकें वर्तमान में श्रुतज्ञान की अमूल्य धरोहर हैं। इन सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन करके शुद्धात्म समयसार को जो ध्याते हैं वह ही वास्तव में उपाध्याय परमेष्ठी हैं। उनकी मैं वंदना करता हूँ। अब विरोध का परिहार करते हुए कहते हैं जे साहवो दिसंति णयजुगलविरोहमुक्कसव्वत्थं । सिवपहदेसगमुणिणं बहुभत्तीए णमंसामि॥ ७॥ निश्चय और व्यवहार नयों से निर्विरोध सब अर्थ यहाँ हर पहलू से वस्तु समझते ऐसे साधु विरल यहाँ। सदा दे रहे धर्म देशना दोनों नय से भक्ती से बहुश्रुतवन्त महामुनिवरको नमन कर रहा निज मति से॥७॥ अन्वयार्थ : [जे साहवो ] जो साधु [णयजुगल-विरोहमुक्कसव्वत्थं ] दोनों नयों के विरोध से रहित सभी पदार्थों को [ दिसंति ] कहते हैं [ सिवपहदेसगमुणिणं ] शिव पथ दिखाने वाले उन मुनि को [ बहुभत्तीए ] बहुत भक्ति से [णमंसामि ] नमस्कार करता हूँ। भावार्थ : हे आत्म आराधक! भगवान् जिनेन्द्र की वाणी में सभी प्रकार के अभिप्रायों का समावेश है। अपने अभिप्राय को या दृष्टिकोण को ही नय कहा जाता है। नय आपस में कभी विरोध नहीं रखते हैं फिर उनको जानने वाले विरोध क्यों करें? व्यवहार नय हो या निश्चय नय सब अपनी-अपनी जगह कार्यकारी हैं। जब व्यवहार नय की मुख्यता होती है निश्चय नय मौन हो जाता है और जब निश्चय नय की मुख्यता आती है, व्यवहार नय मौन हो
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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