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________________ इस गाथा की टीका करते हुए लिखा है कि जो शुद्ध दशा का अनुभव करते हैं ऐसे शुद्ध आत्माओं के लिए ही शुद्धनय का कथन है। इसके अलावा सभी अशुद्ध आत्माओं का व्यवहार नय का ही आलम्बन लेकर ही भेदज्ञान निष्ठ बना जाता है, व्यवहार नय को छोड़कर नहीं। पुनः कहते हैं णच्चा खलु सिद्धतं धवलादिमहाबंध-सुदणाणं। सुद्धप्प समयसारं झायदि तं पाढगं वंदे ॥ ६॥ धवल आदि सिद्धान्त ग्रन्थ के जो रहस्य को जान रहे वे ही समयसार को पढ़कर निज आतम को जान रहे। कर विश्वास निजातम पर जो शुद्धातम को ध्याते हैं उन पाठक साधु के चरणन नित हम शीश झुकाते हैं॥६॥ अन्वयार्थ : [धवलादि-महाबंध-सुदणाणं] धवल आदि महाबंध श्रुतज्ञान [ सिद्धतं] सिद्धान्त को [खलु] निश्चय से [णच्चा ] जानकर [ सुद्धप्पसमयसारं ] शुद्धात्म समयसार को [ झायदि] जो ध्याते हैं [तं] उन [पाढगं] पाठक की [वंदे ] मैं वंदना करता हूँ। भावार्थ : आओ! थोड़ा सा जैन सिद्धान्त ग्रन्थों की रूपरेखा जान लें। जिस जिनवाणी का आज थोड़ा सा अंश हमारे पुण्य से हमें प्राप्त है उस जिनवाणी का कम से कम नाम भी अपने मुख पे आ जावे तो यह जिह्वा धन्य हो जाए। तीर्थंकर की साक्षात् दिव्य ध्वनि आज हम नहीं सुन सकते तो कोई बात नहीं किन्तु उसी वाणी का कुछ अंश हमारे पास है। तीर्थंकर भगवान् के द्वारा कहे हुए अर्थश्रुत को गणधर परमेष्ठी ने बारह अंगों में पिरोया। बारह अंगों में निबद्ध इस वाणी को ही द्वादशांग कहा जाता है। बारह संख्या को संस्कृत में द्वादश कहते हैं। द्वादश अंग जिसमें हों वह द्वादशांग शास्त्र हैं। एक-एक विषय का बहुत ही विस्तृत वर्णन करने वाले शास्त्र को अंग का नाम दिया है। अंग अर्थात् अवयव। जैसे अपना शरीर आठ अंगों से मिलकर बना है वैसे ही जिनवाणी के बारह अंग हैं। आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग आदि बारह अंग हैं। हे भव्यात्मन् ! तुमने सुना होगा कि जिनवाणी के बारह अंग और चौदह पूर्व होते हैं, सो ठीक ही सुना है। वैसे तो बारह अंग कहना ही पूर्ण और पर्याप्त है किन्तु बारह अंगों में अन्तिम बारहवें अंग का नाम दृष्टिवाद अंग है। इस अंग के पाँच भेद हैं। इनमें पूर्वगत जो भेद है उसका विस्तार बहुत है। इस पूर्व के चौदह भेद हैं। इन पूर्व शास्त्रों का विस्तार इतना अधिक है कि चौदह पूर्व पृथक् रूप से कहे जाने लगे। वस्तुतः इनका समावेश बारह अंगों में ही हो जाता है। उत्पाद पूर्व, अग्रायणीय पूर्व आदि चौदह पूर्वो के नाम हैं। इन अंगों और पूर्वो का विस्तार सहित वर्णन राजवार्तिक आदि
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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