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________________ सब प्रकार का धर्म करके भी मिथ्या मान्यताओं का पोषण करने वाला जीव अपने संसार को बढ़ाता ही है। कुछ लोग इस तरह की मान्यताओं से बच जाते हैं। जिनेन्द्र भगवान् के तीर्थ में दीक्षित हो जाते हैं पर दूसरी देवी के चक्कर में पड़ जाते हैं। गंगा को छोड़ा तो पद्मा आ गई। चारों अनुयोगों के जानकार होकर भी भीतरी मिथ्यात्व का अन्त जब तक नहीं होता तब तक आत्मा मिथ्यात्व का पोषण किसी न किसी तरह करता है। जब भीतर मिथ्यात्व बैठा रहता है तब ज्ञानी आत्मा भी शास्त्रों में से उसी तरह के उद्धरण खोजता है जिससे उसके अभिप्राय की पुष्टि हो। किसी न किसी तरह खींचतान कर उन शास्त्रों की बातों का सहारा लेकर अपने भीतर की मान्यता को ही पुष्ट करता है, शास्त्र की मान्यता को नहीं। जब वीतराग श्रमण सरागी देवी के उपकार को मनवाने के लिए र्भ देता है तो वह गृहस्थ भी नहीं रहा। देखो! अपने ऊपर उपकार करने वाली उस गंगा देवी की सुलोचना ने पूजा-आरती नहीं की किन्तु उस देवी ने सुलोचना को सिंहासन पर बिठाकर पूजा। न तो सुलोचना और न ही जयकुमार उस गंगा के उपकार के गीत गाते रहे। एक गृहस्थ होकर भी देवी-देवताओं की न पूजा करते हैं और न उनके गीत गाकर पूजा करवाते हैं, फिर जब एक श्रमण ऐसा करे, समझना कि कलिकाल का प्रभाव है। सुलोचना विचार करती है कि- 'पिछले जन्म में मेरे साथ क्रीडा कर रही सखी को सर्प ने काट लिया। मैंने उसे तत्काल नमस्कार मंत्र सुनाया और उसी उपकार को चुकाने यह गंगा देवी यहाँ आयी है। वह मेरी सखी ही इस प्रकार मरण करके गंगा देवी बनी। उस सखी को पढ़ाने के लिए उसके पिता ने उसे मुझे सौंपा था।' विचार करो! अपने प्राण बचाने वाली उस देवी के पैर भी सुलोचना ने नहीं पड़े। जयकुमार ने उसकी आरती नहीं की। उलटा उस देवी ने सम्यग्दृष्टि जयकुमार और सुलोचना की पूजा-वन्दना की। बन्धो ! उपकारी और पूज्य में अन्तर समझो। इधर लोग जल, हवा, सूर्य, अग्नि, पर्वत के उपकारों को मानकर ही उन्हें पूज रहे हैं और तुम भी यहाँ उन देवी-देवताओं के उपकार को दिखा रहे हो, पूज रहे हो, पुजवा रहे हो। एक गड्ढे से निकले दूसरे में गिर पड़े। तुम्हारी इस दयनीय दशा को देखकर तुम पर तरस आता है। बेटा! भीतर का मिथ्यात्व बाहरी नग्नता से ढकता नहीं है। पूज्यता के लक्षण अलग होते हैं। पूज्यता आत्मा में लगी कषायों के नाश से आती है। उपकार तो कोई भी कर देता है? उपकारी का उपकार मानना कृतज्ञता है पर उसे पूज्य मान लेना अज्ञता है। किस पर उपकार किया था उस देवी ने? अरे! जिन पार्श्वनाथ पर किया था, वे मानते उसका उपकार। उन्होंने तो कुछ नहीं माना और बावले भक्त आज तक बावले बने हुए हैं। यह श्रुत ऐसी समस्त मिथ्यामान्यताओं को अपने वचनों की तरंगों से दूर फेंक देता है। इसीलिए जिनेन्द्र भगवान का तीर्थ सभी तीर्थों से विशिष्ट है। ऐसे तीर्थ को नमस्कार हो। रत्नत्रय संयुक्त श्रुतज्ञानियों की पदरज हमारे शिर पर हो विणएण सुदमधीदं गुरु सयासम्मि जेहि महामुणिहिं। रयणत्तय-संजुत्ता तेसिं पदरयं हवे सिरसि॥४॥ महामुनीश्वर जिनने सीखा गुरु पद निकट शास्त्र का ज्ञान विनय भरी निज हृदय वेदि पर किया मनन चिंतन संधान। रत्नत्रय संयुक्त ऋषीवर श्रुतज्ञानी जिनमत आधार
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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