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________________ दंसणसुद्धिप्पहुडि- भावेहिं भावमाण साहुस्स। तित्थयरं वि य कम्मं बंधदि तेलोक्क-खोहकरं॥२॥ दरश विशुद्धि आदि सोलह का, आतम में रखना सद्भाव तीर्थंकर से महा पुण्य का, बन्ध कराते हैं यह भाव। सम दृष्टि वह साधु पुरुष ही पुण्य कर्म का बन्ध करे स्वयं तिरे अनगिन जन तारे तीन लोक में क्षोभ करे॥२॥ अन्वयार्थ : [ दंसण-सुद्धिप्पहुडि-भावेहिं ] दर्शन विशुद्धि आदि भावों के द्वारा [ भाव-माण-साहुस्स ] भावना करने वाले साधु को [तेलोक्कखोहकरं] तीन लोक में क्षोभ करने वाले [तित्थयरं कम्मं विय] तीर्थंकर कर्म का भी [बंधदि] बंध होता है। भावार्थ- तीर्थंकर केवली बनना दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनाओं को भाने का फल है। सोलह कारण भावना से तीर्थंकर कर्म प्रकृति का बंध होता है। इस कर्म का उदय तेरहवें गुणस्थान में अरिहन्त अवस्था में होता है। इस कर्म का वैचित्र्य यह है कि इस कर्म के सत्त्व में रहने पर भी तीन लोक में क्षोभ उत्पन्न करने वाले अतिशय होते हैं । गर्भ में आने से पूर्व ही छह महीने पहले से रत्नों की वृष्टि होना, उसके बाद गर्भ, जन्म आदि पाँच कल्याणक मनाया जाना भी त्रैलोक्य में क्षोभकारक है। अधिक क्या कहें? नरक आयु बन्ध के बाद तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करके जो जीव नरक में जाते हैं वे नारकी जीव भी अपनी आयु पूर्ण होने के छह माह पहले सुरक्षित हो जाते हैं। देव लोग उन जीवों के चारों ओर वज्र कपाट का निर्माण कर देते हैं। इतना ही नहीं जब तीर्थंकर बालक का जन्म होता है तो चार निकाय के देवों के यहाँ घण्टानाद, शंख आदि के द्वारा शोर होने लगता है। तीर्थंकर बालक के जन्म के समय नरक में भी एक क्षण के लिए शान्ति हो जाती है। इस तरह मनुष्य, तिर्यंच, देव और नारकी चारों गति के जीवों के लिए कल्याणप्रद पद इन दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं से ही फलित होता है। यहाँ मूल गाथा में 'साधु' शब्द आया है, सो उसका अर्थ सामान्यतः सम्यग्दृष्टि आत्मा से है। साधु शब्द अविरत सम्यग्दृष्टि के लिए भी सज्जन या समीचीन अर्थ में प्रयुक्त होता है। जैसा कि रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है- 'चरणं प्रतिपद्यते साधुः।' अर्थात् साधु पुरुष आचरण यानि सम्यग्चारित्र को प्राप्त करता है। चूँकि अविरत सम्यग्दृष्टि, गृहस्थ जीव भी दर्शन विशुद्धि आदि भावनाओं से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर सकता है इसलिए यहाँ साधु शब्द गृहस्थ और यति दोनों को तीर्थंकर कर्म की पात्रता बताता है। राजा श्रेणिक ने अविरत सम्यक्त्व के साथ तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया है, यह सर्वप्रसिद्ध है। क्या इस काल में तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होता है, यदि नहीं होता है तो दर्शन विशुद्धि आदि भावना भाने से क्या प्रयोजन है ? इसका उत्तर देते हैं
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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