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________________ सिद्धोऽसि, बुद्धोऽसि, निरञ्जनोऽसि संसार माया परिवर्जितोऽसि। शरीरभिन्नस्त्यज सर्वचेष्टां मन्दालसावाक्यमुपासि पुत्र॥ अर्थात्- हे पुत्र! तुम सिद्ध हो, बुद्ध हो, निरञ्जन हो। संसार की माया से रहित हो और शरीर से भिन्न हो। तुम मन्दालसा की बात मानते हो न? तो सर्वचेष्टाओं को छोड दो। अरे ! माँ तूने अनन्तों बार मोह का पाठ पढ़ाया। पिता! तुमने व्यापार-धन्धों में पुत्र को लगाया। कभी भी [ का सच्चा उपकार नहीं किया। कभी भी उस आत्मा को परमात्मा बनने की सीख नहीं दी। तीर्थंकरत्व की भावना का लोभ भी यदि पुत्र को दिया होता तो भी वह पुत्र धर्मपुत्र बन जाता और पिता धर्मपिता तथा माँ धर्ममाता कहलाती। मोह का विलास अद्भुत है। अपने पुत्र को धर्मपथ का नेता भी बना सकते हो। ये भावनाएँ विशुद्ध पुण्य से विरले ही जनों में आती हैं। __ हे पुण्यात्मन् ! जो भावनाएँ अनादि से इस आत्मा में उत्पन्न होती रही हैं उन भावनाओं को हमने अनन्त बार भाया है। स्वादिष्ट भोजन की इच्छा में आत्मा ने खूब भावना की और राग से मन चाहा खाया। मनचाहा नहीं मिलने पर द्वेष किया। यही आहार संज्ञा की भावना है। मेरा कोई कुछ न कर दे, मेरी इच्छा की पूर्ति कहीं अधूरी न जाय, मेरा परिग्रह कहीं नष्ट न हो जाय, मैं मर न जाऊँ इत्यादि भावना से अनादि से भय संज्ञा बनी रही। स्त्री की पुरुष में और पुरुष की स्त्री में रमने की भावना अनादि से प्रत्येक पर्याय में बनी रही। उत्शृंखल हो स्वतन्त्र रूप से सबके सामने पशु बनकर इस मैथुन संज्ञा को धारण किया। इस भावना का अभाव कभी नहीं हुआ। पर-वस्तुओं को संग्रह करने की वृत्ति चींटी और चिड़िया की तरह इस तरह आत्मा में अविरल रूप से प्रवाहित रही। परिग्रह संज्ञा की भावना अनादिकालीन है। हे आत्मानुशासक! अब ऐसी भावना भाओ जो कभी भी भायी न हो। जो भावना कभी अच्छी ही न लगी क्योंकि उसके बारे में हमें ज्ञान न रहा। जो भावना कभी भाने की आवश्यकता नहीं महसूस की। आचार्य गुणभद्र देव ऐसी ही भावना भाने पर जोर डालते हुए कहते हैं भावयामि भवाऽऽवर्ते भावनाः प्रागभाविताः। भावये भावितानेति भवाभावाय भावनाः॥ -आत्मानुशासन २३८ अर्थात् हे प्रभो! अब मैं इस संसार की भंवरों में अटकाने वाली पहले भायी हई भावनाओं को नहीं भाऊँगा। मैं ऐसी भावना भाता हूँ जो पहले कभी नहीं भायी गई। जिन भावनाओं से भव का अभाव हो, वह भावना भाता हूँ। आत्मविशुद्धि को बढ़ाने वाली ऐसी तीर्थंकर प्रकृति की बन्धकारक भावनाओं को विशुद्धि के साथ भाओ। इस प्रकार अब दर्शन विशुद्धि आदि भावना का फल कहते हैं
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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