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________________ १२. बहुसुदभत्ती बहुश्रुतवान् कौन हैं? सिद्धं तपारगा जे अइ सरला अप्पसंथुदीमुक्का। कम्मविसोहि-णिमित्तं पढंति पाढयंति वंदामि॥१॥ जो सिद्धान्त महाशास्त्रों का पार पा लिए, सरलमना फिर भी आत्म प्रशंसा बिन हैं श्रत भक्ति से शद्धमना। कर्म निर्जरा कारण पढते और पढाते भविजन को बहुश्रुतधारक पाठक मुनि को वन्दन है मतिवर्धन हो॥१॥ अन्वयार्थ : [जे ] जो [ सिद्धंतपारगा] सिद्धांत के पारगामी हैं [ अइसरला ] अति सरल हैं [ अप्पसंथुदीमुक्का ] अपनी स्तुति करने से रहित हैं और [ कम्म-विसोहि-णिमित्तं ] कर्म विशुद्धि के निमित्त [ पढंति ] पढ़ते हैं [पाढयति ] तथा पढ़ाते हैं [वंदामि ] उनकी वंदना करता हूँ। भावार्थ : बहुश्रुत भक्ति में मुख्यतया बहुत श्रुत को धारण करने वाले साधु परमेष्ठी की भक्ति है। ऐसे साधु परमेष्ठी की भक्ति से श्रुतज्ञान का क्षयोपशम बढ़ता है। श्रुत अर्थात् जिनवाणी जो द्वादशांग शास्त्र हैं। बारह अंगों से युक्त अर्थ वाले शास्त्र तो आज उपलब्ध नहीं हैं फिर भी जितना भी आगम उपलब्ध है उसमें सिद्धान्त आगम को हृदय में धारण करने वाले पूज्य हैं। वर्तमान में जो सिद्धान्त ग्रन्थ षट्खण्डागम आदि उपलब्ध हैं उनका ज्ञान विशिष्ट क्षयोपशम के धनी आत्मा को ही होता है। उस सिद्धान्त ज्ञान को धारण करके भी जो गर्व से उद्धत न हों किन्तु सरल हों वे मुनिराज बहुश्रुत से सहित हैं। श्री धवल ग्रन्थ में कहा है कि- "जो बारह अंगों के पारगामी हैं वे बहुश्रुत कहे जाते हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट आगमार्थ के अनुकूल प्रवृत्ति करने में या उक्त अनुष्ठान के स्पर्श करने को बहुश्रुत भक्ति कहते हैं। उससे भी तीर्थंकर नाम कर्म बंधता है, क्योंकि यह भी दर्शन विशुद्धता आदि शेष कारणों के बिना संभव नहीं है।" ऐसा भव्य आत्मा अपनी आत्म स्तुति नहीं करता है अर्थात् अपने मुंह से अपनी बढ़ाई नहीं करता है। वह विचार करता है कि पहले के मुनिराज अपार श्रुतज्ञान को धारण करके भी मौन रहते थे। एकान्त में वास करते थे। आज तो बहुत थोड़ा सा ज्ञान है उसे पढ़कर हम अभिमानी बनेंगे तो श्रुत-ज्ञानावरण का बन्ध होगा। अल्प श्रुत को धारण कर लेने मात्र से हमारा कल्याण नहीं हो जाएगा किन्तु कल्याण होगा मोह की कमी होने से और आत्म विशुद्धि बढ़ने से। हमारा ज्ञान तो क्षयोपशम वाला है जो कमती-बढ़ती होता रहता है। इस ज्ञान का कब लोप हो जाए? कोई भरोसा नहीं है। यह क्षयोपशम ज्ञान कर्म के क्षयोपशम के अधीन है, ऐसा विचार करके सम्यक् श्रुतज्ञानी मौन रहता है। ये विचार कुछ इस प्रकार हैं
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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