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________________ नय से प्रकाशित करते हैं। जिनेन्द्र मार्ग को प्रकाशित करने में वह ख्याति-पूजा-लाभ का लोभ नहीं रखते हैं किन्तु दीपक की तरह निर्लिप्त भाव से जगत् को ज्ञान प्रकाश देते हैं। व्रत, समिति और गुप्ति से वह आचार्य परिपूर्ण होते हैं। ऐसे आचार्य परमेष्ठी सदा जयवन्त हों। तीर्थंकर की वाणी को पीने एवं पिलाने वाले आचार्य जयवन्त हों तित्थयर-दिव्वझुणी मइअंजुलिणा हि सूरिणा पीदो। पाययइ पुणो अण्णं सो आयरिओ सया जयउ॥५॥ तीर्थंकर की दिव्य ध्वनी का अति अथाह वच पान किया अपनी मति अंजुलि से जिनने पिया स्वयं फिर पिला दिया। जो पाया वह बाँट रहे हैं निज-पर उपकारक आचार्य रहें सदा जयवन्त जगत में परमेष्ठी पद धारक आर्य॥५॥ अन्वयार्थ : [ सूरिणा] आचार्य ने [तित्थयरदिव्वझुणी] तीर्थंकर की दिव्यध्वनि को [ मइअंजुलिणा] मति रूपी अंजुलि से [हि] निश्चय से [पीदो] पिया है [पुणो] पुनः वह [आयरिओ] आचार्य [सया] सदा [जयउ] जयवन्त हों। भावार्थ : आचार्य परमेष्ठी अपनी बुद्धि रूपी अंजुलि से तीर्थंकर की दिव्यध्वनि का पान करते हैं। भगवान महावीर की ध्वनि को गौतम गणधर ने पीया। उनके बाद अंग-पूर्व के एकदेश के ज्ञाता मुनियों की परम्परा छह सौ तेरासी (६८३) वर्ष तक चली। इसके बाद भी होने वाले आचार्य यथालब्ध जिनवाणी को अपनी बुद्धि से क्षयोपशम के अनुसार स्वयं ग्रहण करते हैं और अन्य भव्य जीवों को भी प्रदान करते हैं। इसी उपकार के कारण परमेष्ठी सर्वश्रेष्ठ हैं। ऐसे आचार्य सदैव जयवन्त हों। आचार्य की विशेषता और बताते हैं जो खाई लाहेण ण कुणदि एगंतगेहिं संमोहं । णेव विणासइ समिदिं सो आयरिओ सया जयउ॥६॥ मत एकान्त समर्थन करने वालों से ना घुले मिले ख्याति लाभ की इच्छा से ना, मान दिलाते मान मिले। नहीं प्रतिष्ठापन, ईर्यादिक समिति गुप्ति का नाश करें वह आचार्य परम परमेष्ठी जयवन्ते भवि पाप हरे॥६॥ अन्वयार्थ : [जो ] जो आचार्य [खाईलाहेण ] ख्याति लाभ से [ एगंतगेहिं ] एकान्त मती लोगों से [ संमोहं]
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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