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________________ अनेक जन्मों के पुण्य से प्राप्त होता है। निर्मल कीर्ति को धारण करने वाले आचार्य जयवन्त हों जस्स य णिम्मलकित्ती छादयदि चंदिगेव दिगंतराणि। हिदयं करेदि सीदं ससिमुहसूरी सया जयउ॥ ३॥ जिनकी जग में निर्मल कीर्ति दिगंतरों में छाती है जैसे चन्द्र चाँदनी नभ में उजली-उजली भाती है। चन्द्र तुल्य जिनका मुख मण्डल दर्शन शीतलता देता रहें सदा जयवन्त जगत में सूरि दर्श अघ हर लेता॥३॥ अन्वयार्थ : [जस्स य] जिनकी [णिम्मलकित्ती] निर्मल कीर्ति [चंदिगेव] चाँदनी के समान [दिगंतराणि] दिगन्तरों को [ छादयदि] आच्छादित करती है जो [ हिदयं] हृदय को [ सीदं] शीतल [ करेदि] करते हैं [ससिमुहसूरी] चन्द्रमा के समान मुख वाले आचार्य [ सया] सदा [ जयउ ] जयवन्त हों। भावार्थ : जिन आचार्य की कीर्ति ने चन्द्रमा की चाँदनी के समान दिशाओं के अन्तराल को व्याप्त किया है और जो सभी भव्य जीवों के संसार दुःख से संतप्त हृदय को शीतलता पहुँचाते हैं, चन्द्रमा के मुख समान वह आचार्य सदा जयवन्त रहें। दीपक के समान प्रकाशमान आचार्य सदा जयवन्त हों जो दीवोव्व पयासइ जिणमग्गं णयजुदं हि णिल्लोहो। वदसमिदिगुत्तिपुण्णो सो आयरिओ सया जयउ॥४॥ दो नय की आँखों से सबको गुरुवर पथ दिखलाते हैं बिना लोभ के ज्यों स्वभाव से दीप प्रकाश दिखाते हैं। व्रत-समिती-गुप्ति से पूरण पंचाचार परायण हैं जयवन्तें आचार्य देव जो नर होकर नारायण हैं॥४॥ अन्वयार्थ : [जो] जो [ णिल्लोहो] लोभरहित होकर [ दीवोव्व ] दीपक के समान [णयजुदं] नय सहित [जिणमग्गं] जिनमार्ग को [ पयासइ ] प्रकाशित करते हैं [ सो] वह [ वदसमिदिगुत्तिपुण्णो] व्रत, समिति, गुप्ति से परिपूर्ण [आयरिओ] आचार्य [ सदा ] सदा [ जयउ ] जयवन्त हों। भावार्थ : जो आचार्य परमेष्ठी जिनमार्ग को किसी एक नय से नहीं प्रकाशित करते हैं किन्तु व्यवहार और निश्चय
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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