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________________ धम्मकहा 8e15 (४) रेवती रानी की कथा गुप्ताचार्य के पास एक क्षुल्लकजी उत्तर मथुरा में जाने के लिए तैयार हुए। उन्होंने आचार्यदेव को पूछा किस को क्या समाचार कहना है? गुप्ताचार्य ने कहा सव्रतमुनि की वन्दना करके, वरुणराजा की महारानी रेवती को आशीर्वाद कहना। क्षुल्लकजी ने उनसे तीन बार पूछा कि अन्य किसी को तो और कुछ नहीं कहना? गुप्ताचार्य का उत्तर तो एक ही था। तब क्षुल्लक ने विचार किया कि ऐसा क्या कारण हो सकता है, जो भव्यसेन आचार्य को और अन्य मुनियों के लिए उन्होंने कुछ भी समाचार नहीं कहा। मन में इस प्रकार से चिन्तन करके वह वहाँ गये। सुव्रतमुनि को नमस्कार करके वह उनके वात्सल्य से पुष्ट हुए। तदनन्तर भव्यसेन की वसतिका में गये, भव्यसेन मुनि ने उनसे कोई वार्ता नहीं की। क्षुल्लक भव्यसेन के साथ में उच्चार प्रस्त्रवण शुद्धि के लिए गये। क्षुल्लक ने विक्रिया से आगे के मार्ग को हरित कोमल तृण बीजों से आच्छादित कर दिया। उसको देखकर "आगम में सर्वज्ञ भगवान् के द्वारा ये जीव कहे गये हैं" इस प्रकार कहते हुए भी फिर उसी के ऊपर से पाद मर्दन करते हुए निकल गये। शौच के समय पर क्षल्लक ने विक्रिया से कमण्डलु के जल को सुखा दिया और क्षुल्लकजी ने कहा-भन्ते! कमण्डलु में जल नहीं है और यहाँ पर कहीं भी जल और गौमय (गोबर) भी दिखाई नहीं दे रहा है। इसलिए इस सरोवर के ही जल से और मिट्टी से शौच क्रिया कर लेनी चाहिए। उस भव्यसेन ने पहले के समान ही कि 'सर्वज्ञ भगवान ने आगम में ये जीव कहे हैं इस प्रकार कहकर वह क्रिया कर ली। तब यह मिथ्यादृष्टि है यह जानकर के उसका नाम क्षुल्लकजी ने अभव्यसेन कर दिया। तदनन्तर कितने ही दिनों के बाद पूर्व दिशा में क्षुल्लक जी ने यज्ञोपवीत से युक्त पद्मासन में स्थित चतुर्मुख ब्रह्म का स्वरूप विक्रिया से किया। उसकी वन्दना सुर-असुर आदि कर रहे हैं इस प्रकार से दिखाकर के राजा,सभी प्रजाजन, अभव्यसेन मुनि आदि सभी वहाँ गये। सभी के द्वारा प्रेरित किये जाने पर भी रेवती रानी वहाँ नहीं गयी। इसी प्रकार उस क्षुल्लक ने दक्षिण दिशा में गरुढ़ पर आरूढ़ चतुर्भुज से सहित चक्र, गदा, शंख, तलवार को धारण करने वाले वासुदेव का रूप बनाया। सभी लोग गये लेकिन रेवती रानी वहाँ पर भी नहीं गई। पुनः क्षुल्लक ने उत्तर दिशा में समवशरण के बीच में आठ प्रातिहार्यों से सहित सुरअसुर, मनुष्य, विद्याधर मुनि समूह से वंदित पर्यकासन पर बैठे हुए तीर्थंकर का रूप दिखाया। वहाँ पर भी सभी लोग उस रूप को देखने के लिए गए। रेवती नहीं गई। रेवती रानी ने सोचा-तीर्थंकर चौबीस हैं, वासुदेव नौ हैं, रुद्र ग्यारह हैं, ये सब अतीतकाल में हुए हैं। वर्तमानकाल में इनका अभाव है और जिनागम में इसके कथन का अभाव है। वह क्षुल्लक फिर दूसरे दिन रोग से अपनी देह को बिल्कुल क्षीण कके आहारचर्या के लिए रेवती के समीप गया। वहाँ वह माया से मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। रेवती इस प्रकार सुनकर शीघ्र घर से बाहर आई, अन्य जनों के साथ भक्ति से उसको ग्रहण करके घर के भीतर ले गई और उपचार किया। जिससे वह ठीक हो गया। आहार करके उस क्षुल्लक ने दुर्गन्धित वमन कर दिया। वमन और अपने शरीर को प्रक्षालित करके पश्चात्ताप से वह रोती हुई स्थित थी तभी संतुष्ट हुए क्षुल्लक ने सब वृत्तान्त कह दिया। गुरु के द्वारा प्रदत्त आशीर्वाद भी कह दिया। इस प्रकार सम्यग्दर्शन के भाव से रहित भव्यसेन, द्रव्यश्रमण मूढ़ता के कारण हुआ। इसलिए रेवती के समान जिनागम की भावना से प्रवर्तित करना चाहिए।
SR No.034023
Book TitleDhamma Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherAkalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti
Publication Year2016
Total Pages122
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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