SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धम्मकहाee 103 (१३) प्रवचनभक्ति भावना जिनेन्द्र भगवान के मख कमल से विनिर्गत वचन पर्वापर दोषों से रहित है और व्यवहार निश्चयनय गत तत्त्व देशना से युक्त हैं। उन्हीं का नाम प्रवचन है। उनकी भक्ति करना प्रवचनभक्ति भावना है। प्रवचन, श्रुतज्ञान, शास्त्र, आगम, परमागम, भारती, सरस्वती, श्रुतदेवता, ज्ञानदेवता यह सभी एकार्थवाची शब्द है। जो ज्ञान और विज्ञान जिनेन्द्र भगवान के प्रवचनों में है वह अन्यत्र नहीं है । इन्द्रभूति सदृश भी द्रव्य, पंचास्तिकाय, तत्त्वज्ञान, लोक, अलोक विषयक ज्ञान से शून्य था। वह अहंकार रस को छोड़कर इस प्रवचन ज्ञान से ही केवली हो गया। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल ये छह द्रव्य हैं। जीव चेतना से सहित है। कर्ता, भोक्ता, स्वदेहप्रमाण, असंख्यात प्रदेशी, ज्ञान दर्शन गुणों के साथ अनन्त गुणों से भरा हुआ, कर्म सहित होने से संसारी और कर्मों से रहित होने से मुक्त जानना चाहिए। पुद्गलद्रव्य अचेतन है। रस, स्पर्श, वर्ण, गन्ध गुणों से सहित है। अणु और स्कन्ध के भेदों से अनेक प्रकार का है। शब्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, उद्योत और आताप ये सब उस पुद्गल द्रव्य की पर्याय जाननी चाहिए। गति में परिणत जीव और पुद्गलों के गमन में सहकारी धर्म द्रव्य है। वह धर्म द्रव्य निष्क्रिय है, अखण्ड है, एक द्रव्य है और पूरे लोक में फैला हुआ है। स्थिति अर्थात ठहरने के परिणाम से परिणत जीव ,और पुद्गलों की स्थिति में सहकारी अधर्म द्रव्य है। वह अधर्म द्रव्य निष्क्रिय, अखण्ड, एक द्रव्य है और लोक में फैला हुआ है। ऐसा जानना चाहिए। आकाश द्रव्यों को अवकाश देने के योग्य है, एक है, अखण्ड है, निष्क्रिय है । और वह लोक और अलोक में फैला हुआ जानना चाहिए। काल द्रव्य लोकाकाश के प्रति प्रदेश पर स्थित है। अणु के समान है, सभी द्रव्यों में परिणमन का कारण है। वह काल द्रव्य असंख्यात द्रव्य हैं। समय, निमेष, घड़ी, घंटा, वर्ष, युग आदि अनन्त काल की पर्यायों के साथ उस काल द्रव्य को जानना चाहिए। सभी द्रव्य अपने-अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हैं फिर भी उत्पाद,व्यय व ध्रौव्य परिणाम से सहित है। सदाकाल अपने स्वभाव से ही रहते हैं। काल द्रव्य को छोड़कर के पाँच द्रव्य पँचास्तिकाय की संज्ञा से जाने जाते हैं। इसी प्रकार जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये सात तत्त्व हैं यह जीव के मोक्षमार्ग के स्वरूप को और संसारमार्ग के स्वरूप इस्तामलक सदृश स्पष्ट दिखा देते हैं। इस प्रकार अभूतपूर्व तत्त्व ज्ञान से युक्त जिनागम प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग के भेद से चार प्रकार का है। विषय के भेद से इन चार अनुयोगों का विभाजन किया है। उसमें (१) प्रथमानुयोग में-तीर्थकर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण बलदेव आदि ६३ शलाका पुरुषों के साथ उस काल सम्बन्धी अन्य अनेक महापुरुषों के चारित्र का, उनके पूर्व भवों का, पुण्य पाप के फल का और उनकी आगामी परिणति का वर्णन किया जाता है। (२) करणानुयोग में-लोकाकाश का और अलोकाकाश का, युग परिवर्तन का, चार गति के जीवों का. आय. आवास आदि का, संख्यात, असंख्यात, अनन्त गणना से सहित सभी पदार्थों का वर्णन होता है । (३) चरणानुयोग में-मुनिश्रावक धर्म का वर्णन किया जाता है। (४) द्रव्यानुयोग में-जीवादि सात तत्त्व, दोनों नय की प्रमुखता से वर्णन होता है। इस प्रकार का प्रवचन अनादि भी है और सादि भी है जो बीज और वृक्ष के समान जानना चाहिए। सत्य ही है-"बीज वक्ष के क्रम से कथंचित् अनादि और कथंचित् सादि जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा हुआ शास्त्र है जिस शास्त्र के द्वारा अनन्त जीव संसार समुद्र के पार हुए हैं उस प्रवचन को मैं सदा नमस्कार करता हूँ।''(तीर्थकर भावना)
SR No.034023
Book TitleDhamma Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherAkalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti
Publication Year2016
Total Pages122
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy