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________________ शिक्षाप्रद कहानियां 21 तत्पश्चात् रत्नाकर ने वैसा ही किया। बाँध दिया पेड़ से नारद जी को और चल दिया घर की ओर । घर पहुँचकर उसने घर के सभी सदस्यों को एकत्रित किया और पूछा- तुम सबको यह तो मालुम ही है कि तुम जो ये ऐशो-आराम की जिन्दगी जी रहे हो, इस पर धन खर्च होता है, वह मैं लोगों को लूटकर लाता हूँ। क्योंकि अगर मैं महनत- - मजदूरी से भी कमा करके लाऊँ तो इतना ऐशो-आराम तुम लोगों को नहीं मिल सकता। मेरा प्रश्न तुम लोगों से बस इतना - सा है कि कल को अगर मुझे मेरे इस कुकृत्य की सजा मिलने लगे तो क्या तुम सब भी उसमें हिस्सेदार बनोगे या नहीं? इतना सुनते ही सब लोग एक-दूसरे की ओर देखने लगे और अन्त में क्रमशः सभी ने एक स्वर में उत्तर दिया कि क्यों हम क्यों सजा भोगेंगे? ऐसा तो कहीं होता ही नहीं इस सृष्टि का ही नियम है कि- जो बोता है वही काटता है, तो भला हमारी क्या औकात कि हम सृष्टि के विरुद्ध जाए। और घर का मुखिया होने के नाते ये तो तुम्हारा उत्तरदायित्व है। अतः हम सबको इससे कुछ लेना-देना नहीं । इतना सुनते ही रत्नाकर की तो जैसे आँखें खुल गई और तुरन्त भागा वहाँ से नारद जी की ओर । जाकर गिर गया उनके चरणों में और माँगने लगा माफी। यह सब देखकर नारद जी बिना कहे ही सब कुछ समझ गए और उसे प्रेमपूर्वक उठाते हुए बोले- शान्त हो जाओ वत्स! इस दुनिया का वास्तविक स्वरूप यही है। मुझे यहाँ प्रसिद्ध कवि मैथिलिशरण गुप्त की पंक्ति याद आ रही है जिसे मैं यहाँ लिखे बिना रह नहीं पा रहा हूँ मत व्यथित हो पुष्प ! किसको सुख दिया संसार ने? स्वार्थमय सबको बनाया जगत् के व्यवहार ने || तत्पश्चात् रत्नाकर ने पुनः नारद जी के चरण-कमलों में साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया और बोले - हे पूज्यवर ! अब आप ही कोई सुमार्ग बताए जिससे इस कुमार्ग से हटकर सुमार्ग की ओर अग्रसर हुआ जाए।
SR No.034003
Book TitleShikshaprad Kahaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKuldeepkumar
PublisherAmar Granth Publications
Publication Year2017
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size477 KB
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