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________________ शिक्षाप्रद कहानियां 204 वह था कि मानता ही नहीं था । मित्रों! हम सब को यह चिंतन करना चाहिए कि कहीं हम भी तो ऐसा ही नहीं कर रहे हैं। जिसके पास जो है, उसमें उसे कोई सुख, कोई संतोष नहीं मिल रहा है परंतु, जो हमारे पास नहीं है और दूसरों के पास है, उसका अभाव हमें निरंतर दुःखी कर रहा है। संसार की किसी भी वस्तु, किसी भी उपलब्धि पर अगर हम विचार करें तो स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि जो हमें प्राप्त नहीं हैं उसे पाने के लिए हम दुःखी हैं। लेकिन, जिसे वह वस्तु अथवा उपलब्धि प्राप्त है, वह भी सुखी नहीं है। कारण, वह किसी दूसरी वस्तु के लिए, दूसरी उपलब्धि के लिए लालायित है। उसी लालसा में दिन-रात दुःखी हो रहा है। जो कि एक अंतहीन अतृप्ति है और कुछ नहीं। और इसका समाधान एक ही है किजो हमें प्राप्त है उसमें संतोष करना । इसलिए कहा भी जाता है कि *वह पराधीन है सबसे बड़ा भिखारी है। जिसमें अनन्त अभिलाषा है, संतोष नहीं ॥ *गो धन गज धन बाजि - धन और रतन धन खान । जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान ॥ ९६. धर्म का सहारा किसी शहर में एक मेला लगा हुआ था। एक बालक अपने पिता की अंगुली पकड़ कर घूम रहा था। वह मेले में लगी दुकानों, रंग-बिरंगे झूलों व अन्य सभी वस्तुओं को देख-देखकर अत्यन्त आनन्दित व हर्षित हो रहा था। तभी अचानक मेले में भगदड़ मच गई और बालक से पिता की अंगुली छूट गई। थोड़ी ही देर में भगदड. शान्त हो गई। लेकिन, खूब ढूँढ़ने पर भी बालक को पिता नहीं मिले। बालक पूरे मेले में घबराया हुआ, रोता हुआ घूमता रहा । उसका सारा आनन्द रफू चक्कर हो गया। उसके चेहरे से मानो हँसी कोसों दूर चली गई हो । यद्यपि मेले में वे सारी वस्तुएं मौजूद थीं, जिन्हें देख-देखकर कुछ क्षण पहले बालक हर्षित हो रहा था, लेकिन, अब पिता की अंगूली छूटने मात्र से वह बहुत दुःखी हो रहा था। वे सभी वस्तुएँ भी उसे प्रसन्न नहीं कर पा रहीं थी । संयोगवशात् कुछ ही देर बाद बालक को पिता मिल गये और वह बालक
SR No.034003
Book TitleShikshaprad Kahaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKuldeepkumar
PublisherAmar Granth Publications
Publication Year2017
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size477 KB
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