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________________ शिक्षाप्रद कहानियां 131 यह सुनकर महात्मा बोले- बहन ! तुम ठीक कह रही हो लेकिन कल मेरी स्वयं की ऐसी स्थिति नहीं थी कि मैं इसको गुड़ खाने के लिए मना करता क्योंकि, कल जब तुम आई थी तब तक मैं स्वयं भी खूब गुड़ खाता था ओर संयोगवश उस समय भी मेरे समक्ष गुड़ रखा हुआ था। उस समय अगर मैं इसको यह कहता कि तुम गुड़ मत खाया करो, तो यह भले ही कुछ कहता नहीं अपितु, मन ही मन यह अवश्य सोचता कि- देखो, खुद ता गुड़ खाता है और मुझे मना करता है। तब भला, यह मेरी बात को कैसे मानता ? इसीलिए पहले मैंने स्वयं गुड़ खाना बन्द किया । और हाँ एक बात और है कि यह तो जो सोचता सो सोचता लेकिन मेरी स्वयं की आत्मा तो मुझे जरूर धिक्कारती कि स्वयं तो प्लेट भर-भर कर गुड़ खाता है और दूसरों को गुड़ न खाने का उपदेश देता है। जोकि मेरे लिए बड़ा ही कष्टदायी होता । अतः मैंने कल यह बात नहीं बताई और तुम्हें अगले दिन आने को कहा। अतः हम सबको उपदेश देने से पहले यह जरूर सोचना चाहिए कि- जो उपदेश हम दूसरों को दे रहें हैं। क्या हम स्वयं भी उसका पालन कर रहे हैं अथवा नहीं। क्योंकि उपदेशदाता के आचरण का अनुकरण उपदेश सुनने वाला अवश्य करता है। जिस प्रकार शिष्य गुरु का अनुकरण करता है। कहा भी जाता है कि गुरुजनशीलमनुसरन्ति शिष्याः । अर्थात् शिष्य अपने गुरुजनों के शील ( आचार-विचार) का अनुशरण करते हैं। ५४. विद्या का महत्त्व सद्विद्या यदि का चिन्ता, वराकोदरपूरणे। शुकोप्यशनमाप्नोति, रामरामेति च ब्रुवन्॥ यदि उत्तम विद्या (ज्ञान) पास में है तो इस दरिद्र पेट को भरने की क्या चिन्ता? जिस प्रकार राम-राम रटते हुए तोता बिना प्रयास किये
SR No.034003
Book TitleShikshaprad Kahaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKuldeepkumar
PublisherAmar Granth Publications
Publication Year2017
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size477 KB
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