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________________ शिक्षाप्रद कहानिया 125 यह सुनकर सेठ बोला- मैंने बचपन में एक कहावत सुनी थी कि “दूर के ढोल सुहावने होते हैं।' उसे आज प्रकट रूप में देख भी लिया। मैं समझता था कि अधिक धन प्राप्त करने से मनुष्य सुखी होता है। किन्तु आज मैंने स्वयं यह अनुभव कर लिया है कि आवश्यकता से अधिक धन दुख का कारण होता है। उसके कारण मेरा खाना-पीना, बैठना, सोना-जागना, सब कुछ हराम हो गया है। और हाँ, मैंने यह भी भलीभाँति समझ लिया है कि न केवल धन अपितु, कोई भी काम आवश्यकता से अधिक नहीं करना चाहिए क्योंकि 'अति' हमेशा ही खतरनाक होती है। अतः मैं अब आप से पुनः विनती करता हूँ किआप हमें फिर से साधारण मनुष्य बना दीजिए। जिससे हम परिश्रम करके अपना जीवन निर्वाह कर सकें। कहा भी जाता है कि पश्य कर्मवशात् प्राप्तं, भोजनकालापि भोजनम्। हस्तोधमं बिना वक्त्रे, प्रविशेन्न कथञ्चन॥ अर्थात् देखो! भोजन के समय भाग्यवश भोजन तो प्रप्त हुआ, किन्तु हाथ के उद्योग (चलाने) बिना कभी वह स्वयं अपने मुख में प्रविष्ट नहीं होता। उद्यमेन ही सिध्यन्ति, कार्याणि न मनोरथैः। न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥ कार्य परिश्रम करने से ही सफल होते हैं? विचार करने मात्र से नहीं। जिस प्रकार सोये हुए शेर के मुँह में पशु स्वयं आकर नहीं घुसते। अपितु, इसके लिए शेर को प्रयास करना पड़ता है। उद्यमेन विना तात् न सिध्यन्ति मनोरथाः। कातरा इति जलपन्ति, यद् भाग्यं तद् भविष्यति॥ डरपोक और आलसी मनुष्य ही ऐसा कहते हैं कि जो भाग्य में होगा, वही होता है। क्योंकि पुरुषार्थ किये बिना विचार मात्र से कार्यसिद्धि कभी सम्भव नहीं होती।
SR No.034003
Book TitleShikshaprad Kahaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKuldeepkumar
PublisherAmar Granth Publications
Publication Year2017
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size477 KB
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