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________________ भगवान वृषभदेव ने ज्येष्ठ पुत्र को राजगद्दी देकर बाहूबली को युवराज बना दिया। स्वयं राजकार्य की ओर से बिल्कुल निराकुल हो गए। त्रिभुवनपति भगवान वृषभनाथ महाराज नाभिराज एवं महारानी मरूदेवी से आज्ञा लेकर वन जाने के लिए देव निर्मित पालकी पर सवार हए। वन में पहुंच कर पालकी से उतर गये। चन्द्रकान्त मणी की शिला पर बैठ गये। समस्त वस्त्रा-भूषण उतार दिये एवं पंच मुष्ठियों से केश उखाड़ डाले तथा पूर्व दिशा की ओर मुख करके खड़े होकर सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार करते हए। सिद्ध भगवान की साक्षी पूर्वक समस्त परिग्रहों का त्याग कर दिया। इस तरह महामुनि आदिनाथ ने चैत्र बदी नवमी के दिन अपरानुकाल के समय उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में जिनदीक्षा ग्रहण की थी। वन में महामुनि आदिनाथ छह महीना का अनशन धारण कर एक आसन से बैठे हुए थे। धूप, वर्षा, शीत आदि की बाधाएं उन्हें रचमात्र भी विचलित नहीं कर सकी थी। वे मेरू के समान अचल थे। उनकी दृष्टि नासा के अग्रभाग पर लगी हई थी। HOM CONaive E जिस वन में महामुनि वृषभेश्वर ध्यान कर रहे थे उस वन में जन्म विरोधी जीवों ने भी विरोध छोड़ दिया। गाय, सिंह, मंग, सर्प, नेवला, मोर आदि एक दूसरे के साथ क्रीड़ा किया करते थे। सच है विशुद्ध आत्मा का प्रभाव सब पर पड़ता है। ध्यान करते-करते जब छ: माह व्यतीत हो गये। तब भगवान वृषभदेव ने अपना उस समय करू जांगल देश के हस्तिनापुर में राजा सोमप्रभ राज्य करते थे। ध्यान मुद्रा समाप्त कर आहार लेने का विचार किया, मुनि मार्ग चलाने का ख्याल उनके छोटे भाई का नाम श्रेयांस कुमार था। श्रेयांस कुमार भगवान आदिनाथ कर ग्रामों में विहार शुरू किया। महामुनि आदिनाथ से पहले वहां कोई मुनि हुआ ही। के वज्रजंघ भव में श्रीमती का जीव था। जो क्रम से आर्या, स्वयंप्रभ देव नही था। इसलिए लोग मुनिमार्ग से सर्वथा अपरिचित थे। वे यह नहीं समझते थे कि केशव, अच्युत, प्रतीन्द्र, धनदेव आदि होकर अहमिन्द्र हआ था। वहां से मुनियों के लिए आहार कैसे दिया जाता है। विधिपूर्वक न मिलने के कारण वे बिना चयकर श्रयास कुमार हुआ। न मिलने के कारण वे बिना कर अवासमा आज मैं ने रात्रि के पिछले पहर में बड़ा आहर लिए ही नगरों से वापस चले जाते थे। इस तरह स्थान-स्थान पर घूमते हुए। विचित्र स्वप्न देखा। अत्यन्त ऊँचा मेरुपर्वत है, कल्पवृक्ष की शाखाओं उन्हें एक माह बीत गया। देवराज जिनकी आज्ञा की प्रतीक्षा किया करते थे। सम्राट में आभूषण अलंकृत हैं। मूंगा के समान लाल-लाल से शोभित भरत जिन का पुत्र था। स्वयं तीनों लोकों के अधिपति कहलाते थे। वे भी कई नगरों सिंह, अपने सींगो पर मिट्टी लगाया हुआ बैल, दमकता सूर्य, किरण में घूमते रहे, पर आहार न मिला। इस तरह महामुनि आदिनाथ ने एक वर्ष तक युक्त चन्द्रमा, लहराता समुद्र, अष्ट मंगल द्रव्यों को लिए व्यंतर देव थे। कुछ भी नही खाया-पिया, तो भी उनके चित्त एवं शरीर में किसी प्रकार की शिथिलता नही दिखाई पड़ती थी। जैन चित्रकथा
SR No.033221
Book TitleChoubis Tirthankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherAcharya Dharmshrut Granthmala
Publication Year
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Comics, Moral Stories, & Children Comics
File Size9 MB
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