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________________ निर्विकल्प दशा में द्वैतभाव छूट जाता है, अद्वैत का रंग आ जाता है / मार्ग खोजी आत्माओं को निश्चय करना चाहिए कि यही त्रिलोक में सार है, अन्यथा सब संसार असार है / यही मार्ग निराकुल आनन्द का स्त्रोत और भवोदधि का पोत है। यह आत्मा अवश्य एक न एक दिन मोह शत्रु को परास्त करके शिवनगरी का राज्य करेगा / यह दयामय प्राणी - संरक्षक युद्ध है। जैनधर्म क्षत्रिय वीरों का धर्म है - 24 तीर्थकर, 12 चक्रवर्ती, है नारायण, 6 प्रतिनारायण, 6 बलभद्र सब क्षत्रिय जैन थे। अग्रवाल, ओसवाल आदि भी क्षत्रिय वंशज हैं / व्यापार - बाणिज्य करने से बनिये कहलाने लगे / वणिकवृत्ति के साथ कायरता समा गई, आलस्य और प्रमाद ने जोर पकड़ा, धर्म दिखावे की चीज रह गया। जैन खद जैनी नहीं रहे। जब जैनियों में ही जैनत्व नहीं रहा तो जैनधर्म और जैन समाज का प्रभाव लुप्त हो गया / जैनधर्म जगत भर का उपकारक है। इसका प्रचार जगत में होना चाहिए। प्राचीन काल में जैनाचार्यों ने हजारों लाखों अजैनों को एक दिन में जैन बनाया था। जैन धर्म पतितों का उद्धारक है / हिंसक भील श्रावकव्रत पालकर अन्ततः महावीर तीर्थकर हुआ / जैन समाज की संख्या घटती जा रही है / वह मरणासन्न है / उसकी रक्षा के उपाय में देर करना बड़ी कठोर निर्दयता है / जिनालयों का भंडार किसी विशेष स्थानीय मंदिर की संपत्ति नहीं है / उसका सदुपयोग अन्य स्थानों में जहाँ जरूरत हो जीर्णोद्वार, विद्याप्रचार, धर्मप्रसारार्थ किया जाये / मात्र 18 वर्ष की आयु में 24 मई 1866 ई० के जैन गजट में ब्र० जी ने लिखा था - ____ 'ऐ जैनी पंडितो, यह धर्म आप ही के आधीन है / इसकी रक्षा कीजिए, ज्योति फैलाईये, स्रोतों को जगाइये और तन मन धन से परोपकार और शुद्धनिखार लाने की कोशिश कीजिए, जिससे आपका यह लोक और परलोक दोनों सुधरें / "
SR No.032880
Book TitleSamajonnayak Krantikari Yugpurush Bramhachari Shitalprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotiprasad Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Parishad
Publication Year1985
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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