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________________ करणानुयोग ग्रंथ में माना गया है। इसलिये चतुर्थ गुणस्थान में शुद्धोपयोग,आत्मानुभूति, निश्चय सम्यक्त्व-वीतराग- स्वसंवेदन आदि मानना आवश्यक है, यह बात स्पष्ट निर्विवाद सिद्ध हो जाती है। ज्ञानी के भोग-उपभोग निर्जरा के कारण हैं ऐसा विधान समयसार में किया गया है / वहाँ ज्ञानी का अर्थ केवल वीतराग-संयमी मान लिया जाये तो वीतरागी-संयमी मुनि को भोग-उपभोग के विधान का अनिष्ट प्रसंग आवेगा / . इसलिये शास्त्र के विधान का यथोचित नयविवक्षावश समीचीन अर्थ - लगाना ही सम्यग्ज्ञान कहलाता है / तीर्थप्रवृत्ति निमित्त प्रयोजनवश ज्ञानी सम्यग्दृष्टि के व्रत-संयम तपादिक शुभोपयोग संवर-निर्जरा का कारण उपचार से- व्यवहारनय से कहा गया है ; परंतु ज्ञानी उन व्रतादिक शुभोपयोग को भी शुभराग मानकर बंध का ही कारण मानता है, संवर-निर्जरा का कारण नहीं समझता है / वह क्थागुणस्थान आवश्यक कर्म अवश्य करता है; परंतु उस में उसकी उपादेय-बुद्धि इष्ट-बुद्धि नहीं रहती है / हेय-बुद्धि से वह तावत्काल अपवाद मार्ग समझकर असामर्थ्यवश धारण करता है। उसकी निरंतर-भावनाआत्मस्वभाव में स्थिर होने की ही रहती है / आत्मस्वभाव को वह सर्वथा उपादेय-इष्ट समझता है। ऐसे ज्ञानी के भोग-उपभोग या व्रतादिक सराग होने के कारण वास्तव में आस्त्रव बंध के कारण होते हुये भी उन में उसकी हेयबुद्धि होने से, उपादेय बुद्धि न होनेसे - भेदज्ञानपूर्वक आत्मोपलम्भपूर्वक समीचीन दृष्टि होने से, वे उपचार से व्यवहारनय से संवर-निर्जरा के कारण कहे जाते हैं, तीर्थ और तीर्थ प्रवृत्ति की ऐसी ही व्यवस्था मानी गई है। (इत्यलम् विस्तरेण) पं. नरेन्द्रकुमार शास्त्री न्यायतीर्थ, महामहिमोपाध्याय, सोलापूर सोलापूर वीर नि. सं. 2513
SR No.032868
Book TitleNijdhruvshuddhatmanubhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar, Lilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2007
Total Pages76
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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