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________________ ध्यान-द्वात्रिंशिका इस संदर्भ में प्रायारो का यह सूत्र उल्लेखनीय है—'कुसले पुण णो बद्धे, णो मुक्के। से जं च प्रारभे, जं च णारभे . (I. 2, 182-83) / कुशल पुरुष अपनी प्रवृत्ति और निवृत्ति में न बद्ध होता है और न मुक्त, अर्थात् ज्ञानी व्यक्ति प्रवृत्ति-निवृत्ति रूप कर्मफलों से अस्पृष्ट रहता है। इस प्रसंग में वसुबंधु द्वारा अभिधर्मकोष भाष्य . (XI. 34) में उद्धृत निम्नलिखित श्लोक विशिष्ट प्रकाश डालता है कृत्वाऽबुधोऽल्पमपि पापमधः प्रयाति कृत्वा बुधो महदपि प्रजहात्यनर्थम् / मज्जत्योऽल्पमपि वारिणि संहतं हि पात्रीकृतं महदपि प्लवते तदेव // अज्ञानी व्यक्ति स्वल्प पाप से ही अधोगति में चला जाता है, जबकि प्रज्ञावान् व्यक्ति महान् पाप करता हुआ भी अनर्थों से बच जाता है। जिस प्रकार एक छोटी-सी सूई घनीभूत होने के कारण पानी में डूब जाती है और जहाज रूप में परिणत विशाल लौहखंड पानी की सतह पर तैरता रहता है। न दोषदर्शनाच्छुद्धं वैराग्यं विषयात्मसु / मृदुप्रवृत्त्युपायोऽयं तत्त्वज्ञानं परं हितम् // 21 // विषय एवं शरीर आदि के दोष-दर्शन मात्र से शुद्ध वैराग्य संभव नहीं है। यह तो एक प्रारम्भिक सरल प्रवृत्ति है। वास्तविक आत्महित तो तत्त्वज्ञान या सम्यग्दर्शन से ही संभव है। इस प्रसंग में श्रीमद्भगवद्गीता (II, 56) का निम्नलिखित श्लोक काफी प्रकाश डालता है विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः / रसवर्ज रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते // (रूप, रस आदि विषयों से निवृत्त) निराहार व्यक्ति अपने को विषयों से हटा लेता है, परन्तु इससे आत्मशुद्धि नहीं होती, क्योंकि विषयों के प्रति उसकी आसक्ति बनी रहती है / यह आसक्ति प्रात्म-दर्शन से टूटती है। अर्थात् सम्यक्-दर्शन से ही वास्तविक वैराग्य संभव है। श्रद्धावान् विदितापायः परिक्रांतपरीषहः / भव्यो गुरुभिरादिष्टो योगाचारमुपाचरेत् // 22 // दुःख-ज्ञान से जिसे श्रद्धा उपलब्ध है, जिसमें परीषहों को सहने का पराक्रम है एवं जिसे गुरु ने आदेश दे दिया है, वही साधक वस्तुतः योगाभ्यास का अधिकारी है। प्रस्तुत श्लोक में 'श्रद्धावान् विदितापाय:' यह अभ्युक्ति 'दुःख तत्त्व के सम्यक् दर्शन होने पर ही श्रद्धा की उत्पत्ति होती है', इस तथ्य का निरूपण करती है। प्राचार्य
SR No.032865
Book TitleJaina Meditation Citta Samadhi Jaina Yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages170
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size12 MB
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