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________________ 36 * जैन योग : चित्त-समाधि दार्शनिक योजना निर्दोष एवं यथार्थ है / निषेकादिजरापाकपर्यन्तं पौरुषं यथा। सम्यग्दर्शनभावादिरप्रमाद विधिस्तथा // 16 // जिस प्रकार चार पुरुषार्थों की सिद्धि के लिए गर्भाधान से मृत्यु पर्यन्त अनेक संस्कारों का विधान (मनुस्मति 2/16 जैसे स्थलों में उपलब्ध) है, उसी प्रकार सम्यक्त्व दीक्षा के बीजारोपण से लेकर अप्रमाद के पूर्ण अभ्यास पर्यन्त विभिन्न संस्कारों द्वारा साधक चेतना का ऊर्ध्वारोहण करता है। शब्दादिषु यथालोकश्चित्रावस्थः प्रवर्तते / तद्वत्तमात्मप्रत्यक्षं त्याज्यमित्युभयो नयः // 17 // जगत् के प्राणी (राग-द्वेषादि) विभिन्न अवस्थाओं का अनुभव करते हुए शब्दादि विषयों में प्रवृत्ति-निवृत्ति करते हैं। यह प्रवृत्ति और निवृत्ति प्रात्म-प्रत्यक्ष है / प्रवृत्ति एवं निवृत्ति रूप दोनों नय वस्तुभूत सोता हैं। ___ तात्पर्य यह कि जगत् के पदार्थ उपादेय एवं हेय दोनों प्रकार के हैं। इन्हें हम मिथ्या प्रमाणित नहीं कर सकते / घृणानुकम्पे पारुष्यकार्पण्य-परिशुद्धये / व्रतोपव्रतयुक्तस्तु स्मृतिस्थैर्योपपत्तये // 18 // (इस श्लोक में व्रत एवं उपव्रतों की सार्थकता सिद्ध की गई है / अहिंसा व्रत के अंगीभूत) दया एवं अनुकम्पा द्वारा परुषता एवं कृपणता की परिशुद्धि होती है / (शेष) व्रतों एवं उपव्रतों द्वारा स्मृति-स्थैर्य (जागरूकता) प्राप्त है। उपधानविधिश्चित्रः शेषाशयविशोधनः / न्याय्यो वातादिवैषम्यविशेषौषधकल्पवत् // 16 // विचित्र (अनेकविध) उपधान-विधि (तपोयोग) द्वारा विविध प्रकार की अवशिष्ट (क्लेश, कर्म एवं विपाक) की वासनाओं का शोधन युक्तिसिद्ध है। जिस प्रकार विशिष्ट औषध-कल्प द्वारा वात, कफ आदि धातुओं की विषमता दूर होती है / ___ तात्पर्य यह है कि व्रतों एवं उपव्रतों द्वारा निरुद्ध कर्मों के अतिरिक्त कर्मवासनानों की निर्जरा तपोयोग द्वारा संभव है। तुलना करें-तत्त्वार्थभाष्य टीका (IX. 6) : संयमात्मनः शेषाशयविशोधनार्थ बाह्याभ्यन्तरतपनं तपः। न विधिः प्रतिषेधो वा कुशलस्य प्रतितुम् / तदेव वृत्तमात्मस्थं कषायपरिपक्तये // 20 // कुशल व्यक्ति के लिए प्रवृत्ति के विधान एवं निषेध अनिवार्य नहीं हैं। (जो आचरण अज्ञानी व्यक्ति को संसारचक्र में फंसाए रखता है) वही ज्ञानी व्यक्ति के लिए कषायमुक्ति का साधन बन जाता है।
SR No.032865
Book TitleJaina Meditation Citta Samadhi Jaina Yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages170
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size12 MB
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