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________________ जैन योग : चित्त-समाधि बताया गया है। बौद्ध दर्शनान्तर्गत प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त के बारह अंगों में तृष्णा, उपादान एवं भव को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। एक ओर अविद्या एवं संस्कार तथा दूसरी ओर तृष्णा, उपादान एवं भव संसार-चक्र के मूलभूत कारण हैं / इस प्रसंग में पटिसम्भिदामग्ग (पृ० 58) का निम्नोद्धृत अंश पठनीय है—पुरिमकम्ममविस्मि मोहो प्रविज्जा, प्रायूहना सङ्घारा, निकन्ति तण्हा, उपगमनं उपादानं, चेतना भवो इमे पञ्च धम्मा पुरिमकम्मभवस्मि इध पटिसन्धिया पच्चया। प्रस्तुत श्लोक में बौद्धों के प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त के मूल तत्त्वों के आधार पर आर्त एवं रौद्र-ध्यान के स्वरूप पर मार्मिक तुलनात्मक एवं समन्वयात्मक प्रकाश डाला गया है। पालम्बनपरीणामविशेषोद्भवभक्तयः / निमित्तमनयोराद्यं परिणामस्तु कारणम् // 7 // ___ आर्त और रौद्र-ध्यान के विभिन्न प्रकारों का उद्भव पालम्बन एवं परिणामइन दोनों में आलम्बन निमित्त-हेतु है एवं परिणाम कारण-हेतु है / तात्पर्य यह है कि पालम्बनों की विभिन्नता से प्रार्त और रौद्र-ध्यान में विभिन्नता उत्पन्न होती है। अर्थात् विभिन्न प्रकार के आलम्बन ही पात और रौद्र-ध्यान की विभिन्नता का निमित्त-हेतु हैं। दूसरी ओर आत्मा के परिणाम भेद के आधार पर भी आर्त और रौद्र-ध्यान की विभिन्नता पाई जाती है। आत्मा के तीव्र, मध्य और मृदु परिणामों के कारण आर्त एवं रौद्र-ध्यान के विपाक भी विभिन्न प्रकार के होते हैं। भवः प्रमादचित्तादि-प्रवृत्तिद्वारसंग्रहः। हिंसादिभेदोपचयः संवरकपराभवः // 8 // प्रमादयुक्त चित्त आदि (अर्थात् मन, वचन एवं काय) की प्रवृत्ति-ये तीन आस्रवद्वार हैं, जो संसार के कारण होने से भव कहलाते हैं। भव की परिपुष्टि हिंसा, अनृत, स्तेय आदि के कारण होती है। एकमात्र संवर से ही आस्रव पर विजय पाई जा सकती है। इस कारिका में प्रास्रव एवं संवर के कार्य का उल्लेख किया गया है। प्रास्रव के लिए यहां भव शब्द का प्रयोग हुआ है। प्रमाद युक्त प्राणव्यपरोपण आदि क्रियायें प्रास्रवद्वार है / तुलना करें-तत्त्वार्थसूत्र (VII. 8) : प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा / परस्परसमुत्थाना विषयेन्द्रियसंविदः। पित्रादिवदभिन्नास्तु विषया भिन्नवृत्तयः // 6 // विषय, इन्द्रिय एवं ज्ञान एक दूसरे को उत्पन्न करते हैं। वे परस्पर भिन्न भी हैं और अभिन्न भी। विषय अपनी विभिन्न पर्यायों के कारण विभिन्न होने पर भी
SR No.032865
Book TitleJaina Meditation Citta Samadhi Jaina Yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages170
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size12 MB
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