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________________ द्वितीय चर्चा : क्षायोपशमिक भाव : आगम-प्रमाण समाधान - तीनों ही सम्यग्दर्शनों में जो साधारण धर्म है, वह सामान्य शब्द से यहाँ पर विवक्षित है। शंका - क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यग्दर्शनों के परस्पर भिन्न-भिन्न होने पर सदृश्यता क्या वस्तु हो सकती है? समाधान - नहीं, क्योंकि उन तीनों सम्यग्दर्शनों में यथार्थ श्रद्धान के प्रति समानता पायी जाती है। शंका - क्षय, क्षयोपशम और उपशम विशेषण से युक्त यथार्थ श्रद्धानों में समानता कैसे हो सकती है? समाधान - विशेषणों में भेद भले ही रहा आवे, परन्तु इससे यथार्थ श्रद्धान रूप विशेष्य में भेद नहीं पड़ता है। (18) धवला, पु. 1, सूत्र 220 (पृ. 401) तिण्णि जणा ण एक्केक्कं, दोद्दो णेच्छंति ते तिवग्गा य / एक्को तिण्णि ण इच्छइ, सत्त वि पावंति मिच्छत्तं / / 220 / / अर्थ - ऐसे तीन प्रकार के जन, जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र - इन तीनों में से किसी एक-एक को (मोक्षमार्गरूप) स्वीकार नहीं करते, दूसरे ऐसे तीन प्रकार के जन, जो इन तीनों में से दो-दो को (मोक्षमार्गरूप) स्वीकार नहीं करते, तथा कोई एक प्रकार का ऐसा भी जीव हो, जो तीनों को (मोक्षमार्गरूप) स्वीकार नहीं करता - ये सातों प्रकार के जीव, मिथ्यात्वी हैं। समीक्षा - जहाँ सम्यग्दर्शन है, वहाँ तीनों ही एक साथ होते हैं अर्थात् सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र अंशतः होता ही है; अत: सम्यग्दर्शन को कुतर्कों से भी शुभभाव या शुभोपयोग सिद्ध नहीं किया जा सकता है। जो क्षायिक सम्यग्दर्शन, सादि-अनन्त काल तक टिकनवाला है और ज्ञान व चारित्र को सम्यक्ता प्रदान कर, उनको भी टिकाये रखनेवाला है एवं उन सब नौ क्षायिक-लब्धियों में प्रथम क्षायिक-लब्धिरूप है; उसे चतुर्थ से षष्ठम, इन तीन गुणस्थानों में चारित्र गुण की सरागता (सदोषता) रूप अवस्था का आरोप कर, सराग सम्यग्दर्शन कहना, अलग बात है (उपचार मात्र कथन है) और उसे सराग (सदोष) रूप ही मान लेना, उसके स्वरूप को विकृत कर देने की कुचेष्टा मात्र है,
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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