SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 84 क्षयोपशम भाव चर्चा में मिथ्यात्व को अशुभपरिणाम कहा गया है, जिससे यह स्वतःसिद्ध है कि सम्यक्त्व, शुभपरिणाम अर्थात् शुभोपयोग के रूप में विवक्षित है।' और इसे सही ठहराने के लिए समयसार गाथा 12 तात्पर्यवृत्ति टीका से कहा जा रहा है कि चौथे से सातवें गुणस्थानों में होनेवाले सम्यग्दर्शन मात्र को शुभोपयोग कहा है ...??? - इस प्रकार इन गुणस्थानों में होने वाला सम्यग्दर्शन चाहे औपशमिक हो, क्षायोपशमिक हो, या क्षायिक हो, शुभोपयोग ही है, क्योंकि क्षायिक सम्यग्दर्शन भी यहाँ सराग ही होता है।' .... गजब हो गया भैया! क्या कहूँ, क्या लिखू? कुछ समझ नहीं आता। 'सम्यक्त्व-मार्गणा' के कथन में आ. वीरसेनस्वामी ने धवला, पु. 1, पृष्ठ 397/398 पर गाथा 212-216 में तथा सूत्र 145 में ऐसा लिखा है - 'जिनेन्द्रदेव के द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय और नव पदार्थों का आज्ञा अथवा अधिगम से श्रद्धान करने को ‘सम्यक्त्व' कहते हैं।। 212 / / दर्शन-मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने पर जो निर्मल श्रद्धान होता है, वह क्षायिक सम्यक्त्व' है, जो नित्य है और कर्मों के क्षपण का कारण है।। 213 / / श्रद्धान को भ्रष्ट करनेवाले वचन या हेतुओं से अथवा इन्द्रियों को भय उत्पन्न करनेवाले आकारों से या बीभत्स अर्थात् निन्दित पदार्थों के देखने से उत्पन्न हुई ग्लानि से, अथवा किं बहुना तीन लोक से भी वह क्षायिक सम्यग्दर्शन' चलायमान नहीं होताहै।। 214 / / सम्यक्त्व-मोहनीय-प्रकृति के उदय से पदार्थों का जो चल, मलिन और अगाढ़रूप श्रद्धान होता है, उसको वेदकसम्यग्दर्शन' कहते हैं - ऐसा हे शिष्य तू समझ / / 215 / / दर्शन-मोहनीय के उपशम से कीचड़ के नीचे बैठ जाने से निर्मल जल के समान पदार्थों का जो निर्मल श्रद्धान होता है, वह ‘उपशम सम्यग्दर्शन' है।। 216 / / (17) धवला पु. 1 (145/398) सामान्य से सम्यग्दृष्टि और विशेष की अपेक्षा क्षायिक सम्यग्दृष्टि' जीव, असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक होते हैं।।145।। शंका - सम्यक्त्व में रहनेवाला वह सामान्य क्या वस्तु है?
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy