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________________ क्षयोपशम भाव चर्चा सीमा में परिबद्ध नहीं है, अपितु उसमें तो गुणों एवं व्यक्तित्व के विकास की वन्दना है, इसमें किसी भी जगह किसी जाति या सम्प्रदाय विशेष की शब्दावली का प्रयोग नहीं हुआ है और न ही कहीं जैनधर्म का नामोल्लेख है, फिर जैनधर्म को साम्प्रदायिक धर्म कैसे कहा जा सकता है? व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास, उसके गुणों तथा त्याग के आधार पर होता है। समाज, व्यक्ति को नहीं, बल्कि उसके व्यक्तित्व को पूजता है, उसके गुणों की आरती उतारी जाती है। इसी गुणज्ञता वश धवला 1, पृष्ठ 53-54 पर प.पू. वीरसेनस्वामी ने रत्नत्रयधारी आचार्य, उपाध्याय, साधु - इन तीनों परमेष्ठियों को अरिहंत-सिद्ध भगवन्तों की तरह सम्यग्दर्शनादि रत्नों की विद्यमानता के कारण उनमें देवत्व सिद्धकर प्रणामवन्दना करने योग्य कहा है।' वास्तव में तत्त्व-परीक्षक, निष्पक्ष एवं निराग्रही होता है और जिनधर्म, शतप्रतिशत वस्तु स्वरूप पर आधारित धर्म है; इसीलिए इसमें व्यक्तित्व आधारित गुण धर्म की आराधना, निष्पक्ष भाव से सिद्ध की गयी है। ___ ग्रन्थाधिराज श्री प्रवचनसार में आचार्य भगवन्त श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने भ्रमोत्पादक दर्शनमोह के नाश का प्रथम उपाय, गाथा 80 में जो बतलाया है, वह इसप्रकार है - गाथा 80 के प्रथम उपाय में वे कहते हैं - “जो अरहन्त को द्रव्यपने, गुणपने और पर्यायपने से जानता है, वह अपनी आत्मा को जानता है क्योंकि निश्चय से (द्रव्यदृष्टि से) दोनों में कोई अन्तर नहीं है, अरहन्त जैसा ही मेरा आत्मा है - ऐसा जाननेवाले का दर्शन-मोह नियम से नष्ट हो जाता है।" दूसरा उपायान्तर बताते हुए गाथा 86 में श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्यदेव एवं उसकी तात्पर्यवृत्ति टीका में आचार्य श्री जयसेन लिखते हैं - उत्थानिका - द्रव्य गुण पर्याय के परिज्ञान के अभाव में मोह होता है -ऐसा जो पहले (80वीं गाथा) में कहा था, उसके लिए आगमाभ्यास की प्रेरणा करते हैं अथवा द्रव्य गुण पर्यायत्व के द्वारा अर्हन्त का परिज्ञान करके, आत्म-परिज्ञान होता है - ऐसा जो पहले कहा था, उस आत्म-परिज्ञान के लिए भी आगमाभ्यास की अपेक्षा होती है; इस प्रकार दो उत्थानिकाओं को मन में रखकर, 86वीं गाथा में उपायान्तर कहते हैं -
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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