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________________ सच्चे परीक्षा-प्रधानी बनो! देव शास्त्र गुरु धर्म की परीक्षा करनेवाले परीक्षक को, सर्वप्रकार से, सर्व ओर से, परीक्षा करने की जिनदेव की आज्ञा है; अतः चौकन्ना रहने की जरूरत है, क्योंकि सूत्र में कहा है - केवलि-श्रुत-संघ-धर्म-देवाऽवर्णवादो दर्शन-मोहस्य। अर्थात् 1. केवली, 2. श्रुत (शास्त्र), 3. संघ (निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधु, ऋषि, मुनि, यति, अनगार अथवा दिगम्बर मुनि, आर्यिका, श्रावक-श्राविका) 4. धर्म (अहिंसा परमो धर्मः), 5. देव (देवगति के चार जाति के देव) - इन पाँचों के स्वरूप को अन्यथा प्ररूपित करना, मानना मनवाना, आदि दर्शनमोहनीयकर्म के आस्रव का कारण है और यह एक दर्शनमोहनीयकर्म ही इस जीव को अनन्त संसार के परिभ्रमण का कारण है। परीक्षक पुरुष के गुण-धर्मों के बारे में आचार्य हरिभद्र सूरि ने 'लोक तत्त्वनिर्णय' आदि ग्रन्थों में परीक्षा के उपायों को दर्शाया है, वे लिखते हैं - (1) पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु। युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः।। अर्थात् मुझे भगवान महावीर जिनेन्द्र से कोई पक्षपात नहीं है और अन्य कपिलादि से कोई द्वेष नहीं है, परन्तु जिसके वचन सुयुक्तियों से युक्त हों (युक्ति-संगत हों), उसी का ग्रहण करना चाहिए। इसका तात्पर्य यही है कि अपनी बुद्धि को कहीं गिरवी न रखें, परीक्षा प्रधानी बनें। (2) बन्धुर्न नः स भगवान रिपवोऽपि नान्ये, साक्षान्नदृष्टचर एकतमोऽपि चैषाम्। श्रुत्वा वचः सुचरितं च पृथग् विशेष, वीर गुणातिशयलोलतयाश्रिताः स्मः।। अर्थात् ये भगवान महावीर, मेरे कोई बन्धु नहीं हैं और अन्य-देव, मेरे कोई शत्रु नहीं हैं। मैंने तो उनमें से किसी को साक्षात् देखा भी नहीं है, परन्तु उनके वचनों को सुन कर और उनमें अलग ही विशेषता देख कर, गुणातिशयता की लाभ-भावना से मैंने वीर भगवान का ही आश्रय लिया है। जैनदर्शन के सारभूत अनादि-निधन मन्त्र, ‘णमोकार महामन्त्र' में भी पंच परमेष्ठी की जो वन्दना की गयी है, वस्तुतः वह किसी सम्प्रदाय विशेष की संकीर्ण
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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