SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना : क्षयोपशम भाव के सम्बन्ध में निष्कर्ष 53 चतुर्थ गुणस्थान में तो नहीं, तृतीय गुणस्थान में भी इस अविरति को नहीं माना गया है। अरे! वहाँ तो अनन्तानुबन्धी के अभाव-जनित सम्यक्त्वाचरणचारित्र माना गया है, अत: उसे हम अविरति तो कदापि नहीं मान सकते। ___ इस विषय पर आज से लगभग 20 वर्ष पूर्व आचार्य श्री विद्यासागरजी से तीर्थक्षेत्र कुण्डलपुर (दमोह, म.प्र.) में मेरी चर्चा हुई थी, तब भी मैंने आचार्यश्री के सामने यही प्रश्न रखा था कि 'जब चतुर्थ गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी का अभाव होता है और अनन्तानुबन्धी, चारित्र-मोहनीय की प्रकृति है तो उसके अभाव में कौनसा चारित्र प्रगट होता है?' मुझे अच्छी तरह याद है कि आचार्यश्री, इस प्रश्न का जवाब देने के पूर्व कुछ देर के लिए मौन हो गये थे, तब मेरे द्वारा बहुत आग्रह करने पर वे मात्र इतना बोले कि 'आगम में चतुर्थ गुणस्थान में अविरति मानी गई है, चारित्र का कोई उल्लेख नहीं मिलता है।' उस समय तक मुझे अष्टपाहुड के चारित्रपाहुड में चारित्र के भेद-स्वरूप जो ‘सम्यक्त्वाचरण-चारित्र' की चर्चा आती है, उसकी जानकारी नहीं थी, वरना मैं उनसे अवश्य पूछता। जबकि यह तो आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा प्ररूपित है, इसे नहीं मानने का तो सवाल ही नहीं होता। अत: इस सम्बन्ध में अवश्य सम्पूर्ण विद्वद्वर्ग को विचार करना चाहिए; क्योंकि ‘सम्यक्त्वाचरण-चारित्र', चारित्र का ही भेद है, सम्यक्त्व का नहीं। इस सम्बन्ध में अन्य युक्तियों पर भी विचार करते हैं - जैसे, द्वितीय गुणस्थान में चारित्र-मोह की अनन्तानुबन्धी नामक किसी एक कषाय के उदय होने पर भी इस गुणस्थान के भाव को दर्शन-मोह के उदयउपशम-क्षय-क्षयोपशम के अभाव के कारण ‘पारिणामिक भाव' माना गया है, औदयिक नहीं, क्योंकि इस गुणस्थान में चारित्र-मोह की विवक्षा ही नहीं है, अत: यही विवक्षा चतुर्थ गुणस्थान में भी लागू होती है, क्योंकि इस गुणस्थान में भी दर्शन-मोह की ही विवक्षा होती है, चारित्र-मोह की नहीं। शास्त्रकार का यह कहना कि सम्यक्त्व के साथ ज्ञान और चारित्र भी सम्यक् हो जाते हैं और उसके अभाव में वे मिथ्या रहते हैं; इस नियम के अनुसार भी चतुर्थ गुणस्थान में चारित्र के सम्यक्पने की सिद्धि हो जाती है।
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy