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________________ 168 क्षयोपशम भाव चर्चा प्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण के हटे बिना संज्वलन कषाय का विनाश सम्भव नहीं है। इसी से एकीभाव-स्तोत्र में वादिराज स्वामी ने कहा है - मुक्ति-द्वारं परि-दृढं महा-मोह-मुद्रांक-वाटकम्। अर्थात् मुक्ति के द्वार पर अत्यन्त दृढ़ महा-मोह के मुद्रा-सील से मुद्रित कपाट लगे हुए हैं। जब तक यह परिदृढ़ महा-मोह-मुद्रा नहीं टूटेगी, मुक्ति का द्वार बन्द ही रहेगा। जो उसकी चिन्ता न करके कठोर संयम धारण करते हैं, अनेक प्रकार के काय-क्लेश उठाते हैं, वे पहाड़ से व्यर्थ ही सिर फोड़ते हैं। तत्त्व-परिज्ञान और श्रद्धान के बिना लाख चारित्र धारण करने पर भी उस महा-मोह का बाल भी बाँका होनेवाला नहीं है। यह महामोह मिथ्यात्व ही है, दूसरा कोई नहीं। आचार्य अमृतचन्द्रजी की टीका में मोह का लक्षण - तत्त्वाऽप्रतिपत्ति या तत्त्व के स्वरूप को न जानना कहा है। ठीक भी है, जब तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यक्त्व है तो मिथ्यात्व का लक्षण तत्त्व का अज्ञान, अश्रद्धा ही होना चाहिए। किन्तु तत्त्व तो सात हैं और उसके मूल में हैं - जीव और अजीव; इन दोनों के मेल से सात तत्त्व बने हैं; अतः सात तत्त्वों को समझने के लिए जीव और अजीव के स्वरूप को समझना आवश्यक है। आचार्य अमृतचन्द्र ने अपने श्रावकाचार को नाम दिया है - 'पुरुषार्थसिद्ध्युपाय' अर्थात् पुरुषार्थ की सिद्धि का उपाय / इसका प्रथम शब्द है 'पुरुष'; अतः सर्वप्रथम पुरुष का स्वरूप बताते हुए वे लिखते हैं - अस्ति पुरुषश्चिदात्मा, विवर्जितः स्पर्श-गन्ध-रस-वर्णैः। गुण-पर्यय-समवेतः समाहितः समुदय-व्यय-ध्रौव्यैः।।9।। अर्थात् 'पुरुष अर्थात् आत्मा, चैतन्यस्वरूप है; वह स्पर्श-रस-गन्ध-रूप से रहित है, गुण और पर्यायसहित और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप है। इसके द्वारा उन्होंने आत्मद्रव्य के स्वरूप का वर्णन किया है। पुद्गल, रूपरस-गन्ध-वर्ण-स्पर्शयुक्त होता है; पुरुष उनसे रहित है, चैतन्य-स्वरूप है।
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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