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________________ नवम चर्चा अकषाय भाव ही सच्चा धर्म आठ कर्मों में सबसे प्रबल मोहनीय कर्म है, उसे कर्मों की सेना का सेनापति कहा जाता है। वही संसार की जड़ है। जब तक उस पर प्रहार नहीं होता, तब तक सब धर्म-कर्म निष्फल होता है। मोहनीय कर्म के मुख्य भेद दो हैं - दर्शन-मोहनीय और चारित्र-मोहनीय। दर्शन-मोहनीय का मौलिक भेद तो एक मिथ्यात्व ही है और चारित्र-मोहनीय के मुख्य भेद हैं - क्रोध, मान, माया और लोभ; इनमें से प्रत्येक की चार-चार जातियाँ है - अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन / __ अनन्तानुबन्धी, चारित्रमोह का भेद होकर भी उभयघाती है। यह सम्यक्त्व को भी घातती है और चारित्र को भी घातती है, इसका मिथ्यात्व के साथ गहरा गठ-बन्धन है, यह उसी के साथ जाती है। मिथ्यात्व जाये और अनन्तानुबन्धी न जाये - यह सम्भव नहीं। इन्हीं के उपशम होने पर अनादि मिथ्यादृष्टि को एक अन्तर्मुहूर्त के लिए प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है और उसके प्राप्त होते ही जीव का अनन्त संसार सान्त हो जाता है। यद्यपि सम्यक्त्व चला जाता है, किन्तु संसार सान्त ही बना रहता है, उस जीव की मुक्ति सुनिश्चित है। अर्द्ध-पुद्गल-परावर्तन काल से अधिक वह संसार में नहीं रहता। इसी से आगम में कहा है कि 'जब जीव के संसार-भ्रमण का काल अर्द्धपुद्गल-परावर्तन शेष रहता है, तब उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, इसे ही 'काल-लब्धि' कहा है; अतः कषायों से छूटने के लिए सर्वप्रथम मिथ्यात्व से छूटना जरूरी है; क्योंकि मिथ्यात्व के हटे बिना अनन्तानुबन्धी नहीं जा सकती और अनन्तानुबन्धी के हटे बिना अप्रत्याख्यानावरण; अप्रत्याख्यानावरण के हटे बिना
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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