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________________ 145 षष्ठम चर्चा : प्रवचनसार में शुभ-अशुभ-शुद्धोपयोग की ऐक्यतास्वरूप मोक्षमार्ग पर आरूढ़ सर्वारम्भ-परिग्रह से रहित, निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुद्रावन्त मुनिराज भगवन्त में ही होती है, उनकी ही देशना, देशना होती है। __ इसी बात को आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने उक्त गाथाओं में तथा उनकी टीकाओं में आचार्यद्वय - श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेव एवं श्रीमद् जयसेनाचार्यदेव ने केवली-श्रुतकेवलियों के रचनानुसार परम्परा से प्राप्त जिनागम को (सच्चे मुक्तिमार्ग को) लिपिबद्ध कर, सदियों-सदियों के लिए अक्षुण्ण कर दिया है; इसीलिए मंगलाचरण में भगवान महावीरस्वामी एवं उनके प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामी के तत्काल बाद तीसरे स्थान पर भगवत् श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्यदेव का और मंगलमय जैनधर्म का स्मरण किया गया है। ऐसे उत्तम पात्र तपोधन मुनिराज का प्रकारान्तर से उपयोगापेक्षा' लक्षण, प्रवचनसार, गाथा 260 में कहा है - प्रवचनसार, गाथा 260 असुभोवयोगरहिदा, सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता वा। णित्थारयंति लोगं, तेसु पसत्थं लहदि भत्तो।। अर्थात् जो अशुभोपयोग रहित वर्तते हुए, शुद्धोपयोग अथवा शुभोपयोग से युक्त होते हैं; वे श्रमण, लोगों को तार देते हैं और उनके प्रति भक्तिवान जीव, प्रशस्त पुण्य को प्राप्त करता है। यथोक्तलक्षणा एव श्रमणा मोहद्वेषाप्रशस्तरागोच्छेदादशुभोपयोगवियुक्ताः सन्तः सकलकषायोदयविच्छेदात् कदाचित् शुद्धोपयुक्तः प्रशस्तराग विपाकात् कदाचिच्छुभोपयुक्तः, स्वयं मोक्षायतनत्वेन लोकं निस्तारयन्ति; तद्भक्तिभावप्रवृत्तप्रशस्तभावा भवन्ति, परे च पुण्यभाजः / __ अर्थात् यथोक्त लक्षणवाले श्रमण ही मोह (मिथ्यात्व), द्वेष और अप्रशस्तराग का उच्छेद करके अशुभोपयोगरहित वर्तते हुए, समस्त कषायोदय के विच्छेद से कदाचित् शुद्धोपयुक्त और प्रशस्त राग के विपाक से कदाचित् शुभोपयोगयुक्त होते हैं; वे स्वयं मोक्षायतन (मोक्ष के स्थान) होने से लोक को तार देते हैं और उनके प्रति भक्तिभाव से जिनके प्रशस्तभाव वर्तता है - ऐसे उत्कृष्ट अन्य जीव भी पुण्य के भागी (पुण्यशाली) होते हैं। (तत्त्वप्रदीपिका)
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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