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________________ 134 क्षयोपशम भाव चर्चा जो ज्ञानी, सम्यक्दृष्टि का शुभभावरूप शुभोपयोग होता है, वह साक्षात् पुण्यबन्ध का कारण तो होता ही है और परम्परया नियम से निर्वाण का कारण भी होता है, क्योंकि उसके संवर-निर्जरातत्त्व प्रगट हैं, जिन्हें सच्चा तत्त्वार्थश्रद्धान नहीं हुआ, जो शुभास्रव को संवरतत्त्व मानते-मनवाते हैं, जो एक तत्त्व को दूसरे तत्त्व में मिलाते हैं, जो नौ तत्त्वों को उनके आत्मभूत लक्षणों से नहीं पहचानते हैं, उपचार (व्यवहार) कथन को परमार्थ (निश्चय) स्वरूप मानते -मनवाते हैं तो समझना ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवों ने सही देशना ग्रहण नहीं की है; इसीलिए उनका वह शुभभाव पलट कर, अशुभभावरूप हो जाता है, लेकिन शुद्धता को प्राप्त नहीं होता। जब देशना ही सही ग्रहण नहीं की हो तो उनके प्रायोग्य-लब्धि पूर्वक करण-लब्धि के परिणामों की प्राप्ति भी कहाँ से हो सकेगी? कदाचित् कोई जीव, प्रायोग्य-लब्धि तक भी आ जाये, मुक्ति की युक्तिरूप हित की शिक्षा भी ग्रहण कर ले, उसका विचार करने पर ‘ऐसे ही है'- ऐसी उस शिक्षा की प्रतीति भी हो जाये, अथवा अन्यथा विचार करने लग जाये और उस शिक्षा का/उपदेश का निर्धार (निर्णय) न करे तो प्रतीति नहीं भी हो - ऐसा नियम है; अतः इसका उद्यम तो तत्त्व-विचार करना मात्र ही है। ___ पाँचवीं करण-लब्धि होने पर सम्यक्त्व होता ही है - ऐसा नियम है। जिसके प्रथम चार लब्धियाँ हुईं हो और अन्तर्मुहुर्त पश्चात् जिसके सम्यक्त्व होना हो, उस जीव के ही करण-लब्धि होती है। इसका बुद्धिपूर्वक उद्यम तो इतना ही होता है कि उस तत्त्व-विचार में उपयोग को तद्रूप होकर लगाये, उससे समय-समय परिणाम निर्मल विशुद्धतर होते जाते हैं। इन परिणामों का तारतम्य, जैसा सर्वज्ञदेव ने जाना है, उसका वर्णन करणानुयोग में है। त्रिकालवर्ती सर्व करणलब्धिवाले जीवों के परिणामों की अपेक्षा अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण - ये तीन भेद कहे हैं। (देखिए, मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ 262) प्रवचनसार, गाथा 158 'विशिष्ट उदयदशा' में रहनेवाले दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय रूप पुद्गलों के अनुसार परिणति में लगा होने से अशुभ उपराग को ग्रहण करने से जो
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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