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________________ चतुर्थ चर्चा : क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन एवं चारित्र 115 वर्णन नहीं किया जाता है। जैसे, कितने ही जीव, बाह्य में तत्त्व-विचार करते हैं, व्रतादिक पालते हैं; तथापि अन्तरंग में मोहोदय विद्यमान होने से सम्यक्त्व-चारित्र शक्ति प्रगट न होने से मिथ्यात्वी-अव्रती ही बने रहते हैं तथा कितने ही जीव, द्रव्यादि और व्रतादिक के विचार रहित होकर, अन्य शुभाशुभ कार्यों में भी प्रवर्तते हैं, किन्तु अन्तरंग में मोहोदय विद्यमान न होने से सम्यक्त्व-चारित्र शक्ति प्रगट होने से सम्यक्त्वी व व्रती (देशव्रती) होते हैं। कहीं-कहीं जिसकी व्यक्तता कुछ भासित नहीं होती, तथापि सूक्ष्म शक्ति के सद्भाव से उसका वहाँ अस्तित्व कहा है। जैसे, मुनि के अब्रह्म कार्य कुछ नहीं, तथापि नवमें गुणस्थान पर्यन्त मैथुन संज्ञा कही है। अहमिन्द्रों के दुःख का कारण व्यक्त नहीं है, तथापि कदाचित् असाता का उदय कहा है। इस तरह करणानुयोग में जीव के विकारी भावों का और मोहादि कर्मोदय का तारतम्य रूप (डिग्री टू डिग्री) निरूपण है। उसमें 'मेरे विचार से या तेरे विचार से' जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता, न ही किया जाना चाहिए। सम्यग्ज्ञानी वही है, जो वस्तु-स्वरूप को परिपूर्ण जानता है, कम नहीं जानता, अधिक नहीं जानता; जैसा वस्तु का यथार्थ सत्य-स्वरूप है, वैसा ही जानता है, विपरीतता रहित जानता है, संशय रहित जानता है। करणानुयोगानुसार सर्वार्थसिद्धि के देव, जिनकी कषायों की प्रवृत्ति नगण्य (नहीं के बराबर) है, देवियों का संग-सम्पर्क भी नहीं; तथापि असंयमी चतुर्थ गुणस्थानवर्ती ही हैं, जबकि पंचम गुणस्थानवर्ती मनुष्य , व्यापार व अब्रह्म आदि कषाय-कायरूप बहुत प्रवर्तते हैं, तथापि उनके देशसंयम कहा है। इस प्रकार जब हम सूक्ष्मता से आगमनिष्ठ होकर, क्षायोपशमिक-सम्यग्दर्शन एवं क्षायोपशमिक-चारित्ररूप मोक्षमार्गस्थ जीवों की पर्याय में विद्यमान निर्मलता व निर्दोषता/सदोषता का कारण खोजते हैं तो विदित हो जाता है कि निर्मलता/ निर्दोषता का कारण तज्जन्य मोह की प्रकृति के सर्वघाति-स्पर्द्धकों का अनुदय (उदयाभावी क्षय अर्थात् स्वमुख से उदय न होना) एवं उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम (उदीरणा न होना ही) है तथा समलता/सदोषता का कारण उस ही मोहप्रकृति के देशघाति-स्पर्द्धकों का उदय ही है।
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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