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________________ अन्तर की बात मोक्षमार्ग का ही समझाते हैं; इसीलिए कहते हैं कि मोक्षमार्ग, पर्याय के आश्रय से प्रगट नहीं होता। हम सोचते हैं कि क्या ज्ञानीजन यह जानते नहीं होंगे? जिन्होंने पंच परमागमों का अनेक बार वाचन किये हों, वह ऐसी ‘अन्तर की बात' न जाने - ऐसा कैसे हो सकता है? इन विचारों के पश्चात् हमारी सोच यहाँ तक पहुँचती है कि जितने व्यक्ति, ‘उतनी प्रकृतियाँ का मतलब यही होगा कि हर एक व्यक्ति के ज्ञान उघाड़ की योग्यता भिन्न-भिन्न होती है। हर किसी को अपनी संसारी अवस्था की स्थिति का, आधे-अधूरे ज्ञान-दर्शन के उघाड़ का भान सदैव रखना चाहिए। किसी भी तत्त्व या वस्तुस्वरूप को समझते/विवेचन करते समय, अपने ज्ञान में जहाँ तक किसी मत का स्पष्टपना उजागर होता है, उसी के अनुसार बात को पकड़ना या समझना पड़ता है, यह ध्यान में लेकर हम भी अपनी अपूर्णता को समझकर ही विवेचन कर रहे हैं, हो सकता है कि हमारी इस योग्यता के अनुसार कुछ नजर से ओझल रहा हो या छूट गया हो; अतः ऐसा 'ही' है, इसके स्थान पर कहना चाहिए कि ऐसा भी हो सकता है, ऐसा हम सोच रहे हैं क्योंकि हमारी समझ में इतना ही आया है। एक बार ब्र. पं. श्री हेमचन्दजी जैन हेम', भोपाल का 01.09.2007 को पुणे आना हआ तो मैंने अपने 'अन्तर की बात', उक्त शंकाओं के समाधानार्थ उनके सामने रखी। वे मुझे आगम-प्रमाणों से समाधान करनेवाले, निष्पक्ष विचारक, सत्यशोधक विद्वान् लगे। जो शंकाएँ, जिनभाषित के मई और जून-जुलाई 2007 के सम्पादकीयों को पढ़कर मेरे मन में उठी थीं, वे उनके सामने रखीं। वे शंकाएँ इस प्रकार हैं - 1. निश्चयसम्यग्दर्शन क्या शुभोपयोगरूप भी होता है? 2. क्षायोपशमिकभाव को मिश्रभाव क्यों कहते हैं? विशेषतया उसमें क्षायोपशमिक चारित्र क्या है? समझाइए। क्या इस विषय पर आपने कभी आचार्यश्री से बात की है? 3. निमित्त-नैमित्तिक एवं कर्ता-कर्म सम्बन्धों में क्या कुछ अन्तर होता है? 4. 'दैव बनाम पुरुषार्थ' या 'नियति बनाम पुरुषार्थ' पर आगम क्या कहता है? स्पष्ट करें। समयाभाव में भी उन्होंने कुछ बातें तत्काल समक्ष समझायीं। उसके बाद
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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