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________________ क्षयोपशम भाव चर्चा निर्जरा के साथ-साथ पुण्यास्रव-बन्ध भी होता है। जबकि पारिणामिकभाव जीव का उक्त चार भावों से निरपेक्ष एकरूप त्रिकाली जीव- स्वभाव है। इन औदयिकादि चार आपेक्षिक (सापेक्ष) भाव या परभावों से उक्त सहज कारणरूप ज्ञान-दर्शनस्वभाव अगोचर है। इन चार में से एक औदयिकभाव विकारी पर्याय है और अन्य तीन निर्विकारी पर्यायें हैं; परन्तु अन्तर में निजस्वभाव सत्तामात्र, निरावरण, निरपेक्ष, निष्क्रिय कारणज्ञान-दर्शनरूप और सहज कारणश्रद्धा रूप जो त्रिकाली स्वभाव है, वह सहज परमपारिणामिकस्वभाव है। जैसे, प्रकाश के प्रगट होने पर अँधेरा कितना ही घना क्यों न हो? - नष्ट हो जाता है, वैसे ही सहज परमपारिणामिकभाव के आश्रय से या उसके व्यक्त होने पर सारे मिथ्याभाव, विभावभाव नष्ट हो जाते हैं; पर्याय भी निर्मल हो जाती है। क्योंकि वर्तमान निरन्तर वर्तती पर्याय के आश्रय से कोई निर्मल पर्याय प्रगट नहीं होती। चार विभावभावों का आश्रय लेने से परमपारिणामिकभाव का आश्रय नहीं हो सकता / परमपारिणामिकभाव का आश्रय करने से ही सम्यक्त्व से लेकर मोक्ष तक की दशाएँ प्राप्त हो सकती हैं। इस प्रकार यह अन्तर की बात' है, जो अन्दर निश्चय में होगा, वही तो बाहर व्यवहार में आएगा। उस त्रिकाली अनादि-अनन्त आत्मवस्तु में परवस्तु और क्षणिक पुण्य-पाप का होनापना तो दूर, उसका वर्तमान खण्ड-खण्डरूप जानने का जो क्षयोपशम है, जो ज्ञान की वर्तमान दशा या प्रगट अंश है, वह भी त्रिकाली आत्मवस्तु में नहीं है। सारांश यह हुआ कि कारणरूप उपयोग और कारण-दृष्टि - ऐसा जो आत्मस्वभाव है, वह शुभाशुभराग से प्राप्त नहीं है अर्थात् अन्तर में जो कारणदृष्टिमय स्वभाव है, वह शुभ-प्रशस्त राग से भी ज्ञात हो - ऐसा नहीं होता। सुख का मार्ग तो अन्तर में है, वह शुभ या अशुभ राग से प्राप्त नहीं होता। कितनी भी राग की मन्दता कर, शुक्ललेश्यारूप दशा क्यों न प्रगट करें, अन्तर के चैतन्य स्वभाव के आश्रय या शरण में जाने के अलावा कोई मार्ग नहीं है। उस अकृत्रिम, परम स्व-स्वरूप, अविचल स्थितिमय शुद्ध स्थिति को ही 'चारित्र' नाम दिया जाता है। एक समयवर्ती पर्याय जितना आत्मा को मानना - यही बड़ी भूल है, भ्रम है। आचार्य कुन्दकुन्द और उनके परवर्ती टीकाकार, पर्याय का आश्रय छुड़ाने के लिए पर्याय का ज्ञान अवश्य कराते हैं, परन्तु उसे भी हेय कहकर प्रयोजन तो
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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