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________________ 110 क्षयोपशम भाव चर्चा इसलिए जबकि औदयिकभाव, कर्म-बन्ध के कारण हैं तो शुभ-परिणामों से कर्मों का बन्ध ही होना चाहिए, क्षय नहीं। इसका समाधान यह है कि यद्यपि शुभ-परिणाम, मात्र कर्म-बन्ध के कारण हैं; फिर भी जो शुभ-परिणाम, सम्यग्दर्शन आदि की उत्पत्ति के समय होते हैं और जो सम्यग्दर्शन आदि के सद्भाव में पाये जाते हैं, वे आत्मा के विकास में बाधक नहीं होने के कारण उपचार से कर्म-क्षय के कारण कहे जाते हैं। इसी प्रकार क्षायोपशमिक भावों में भी प्रायः देश-घाति-कर्मों के उदय की अपेक्षा रहती है, इसलिए उदयाभावी क्षय और सद्वस्थारूप उपशम से आत्मा में जो विशुद्धि उत्पन्न होती है, उसे यद्यपि उदयजन्य मलिनता से पृथक् नहीं किया जा सकता है, फिर भी वह मलिनता, क्षयोपशम से उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शन आदि का नाश नहीं कर सकती है और न कर्म-क्षय में बाधक ही हो सकती है, इसलिए गाथा में क्षायोपशमिक भाव को भी कर्म-क्षय का कारण कहा है। यदि कहा जाय कि परमागम के उपयोग से कर्मों का क्षय होने पर भी प्रारम्भ किये हुए कार्य में विघ्नों की और विद्यारूप फल के प्राप्त न होने की सम्भावना तो बनी ही रहती है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है अर्थात् जबकि परमागम के उपयोग से विघ्न के और विद्याफल के भाव प्राप्त न होने के कारणभूत कर्मों का नाश हो जाता है, तब फिर उन कर्मों के कार्यरूप विघ्न का सद्भाव और विद्याफल का अभाव बना ही रहे, यह कैसे सम्भव है? कारण के अभाव में कार्य नहीं होता, यह सर्वमान्य नियम है; अतः यह निश्चित हुआ कि परमागम के उपयोग से विघ्नों को उत्पन्न करनेवाले कर्मों का नाश हो जाता है। यदि कहा जाए कि श्रद्धानुसारी अर्थात् आगम में जो लिखा है या गुरु ने जो कुछ कहा है, उसका अनुसरण करनेवाले, शिष्यों में देवता-विषयक भक्ति को उत्पन्न कराने के लिए मंगल किया जाता है; सो भी नहीं है, क्योंकि मंगल के बिना भी केवल गुरु-वचन से ही उनमें देवता-विषयक भक्ति की उत्पत्ति देखी जाती है।
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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