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________________ चतुर्थ चर्चा : क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन एवं चारित्र 109 इस प्रकार कषाय-प्राभृत पर जो कुछ लिखा गया, वह परम्परा से श्री वीरसेन -स्वामी को प्राप्त हुआ; उन्होंने उसका अभ्यास करके, उस पर 'जयधवला' नाम की विस्तृत टीका लिखी, जिसके रचने की यहाँ प्रतिज्ञा की है। शंका - गुणधर भट्टारक (महान आचार्य) ने गाथा-सूत्रों के आदि में तथा यतिवृषभ स्थविर ने भी चूर्णिसूत्रों के आदि में मंगल क्यों नहीं किया? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि प्रारम्भ किये हुए कार्य में विघ्नों को उत्पन्न करनेवाले कर्मों का विनाश करने के लिए मंगल किया जाता है और वे कर्म, परमागम के उपयोग से ही नष्ट हो जाते हैं अर्थात् गाथा-सूत्र और चूर्णि-सूत्र, परमागम का सार लेकर बनाये गये हैं; अत: परमागम में उपयुक्त होने से उनके कर्ताओं को मंगलाचरण करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई, क्योंकि जो काम मंगलाचरण से होता है, वही काम परमागम के उपयोग से भी हो जाता है; इसलिए गुणधर भट्टारक ने गाथा-सूत्रों के और यतिवृषभ स्थविर ने चूर्णि-सूत्रों केप्रारम्भ में मंगल नहीं किया है। यदि कोई कहे कि परमागम के उपयोग से कर्मों का नाश होता है - यह बात असिद्ध है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि शुभ और शुद्ध परिणामों से कर्मों का क्षय न माना जाय तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता है। कहा भी है - ओदइया बंधयरा, उवसम-खय-मिस्सया य मोक्खयरा। भावो दु पारिणामिओ, करणोभय-वज्जिओ होइ॥१॥ अर्थात् औदयिक भावों से कर्म-बन्ध होता है; औपशमिक, क्षायिक और मिश्र भावों से मोक्ष होता है; परन्तु पारिणामिक भाव, बन्ध और मोक्ष - इन दोनों का कारण नहीं है। समीक्षा - यहाँ समाधान करते हुए शुद्ध-परिणामों के समान शुभ-परिणामों को भी कर्म-क्षय का कारण बतलाया है, पर इसकी पुष्टि के लिए प्रमाणरूप से जो गाथा उद्धृत की गई है, उसमें औदयिक भावों से कर्म-बन्ध होता है - यह कहा है। इस प्रकार उक्त दोनों कथनों में परस्पर-विरोध प्रतीत होता है, क्योंकि शुभ-परिणाम, कषाय आदि के उदय से ही होते हैं, क्षयोपशम आदि से नहीं;
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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