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________________ ( 200 ) . अभ्यास-४७ प्यारे से मिलन की चाह मनमोहन उस को देखे हुए कितने दिन हो गये। वियोग का दुःख सहते सहते निर्जीव सी हो गई, किन्तु पापी प्राण नहीं निकलते / जब तुम्हीं दया तहीं करते तो मृत्यु क्यों करने लगी? सुनती हूँ, मरने वाले मृत्यु की राह नहीं दीखते, वे स्वयं मृत्यु के पास चले जाते हैं। मैं क्यों नहीं गई ? पता नहीं। इस दुःख से मृत्यु को भली समझ कर मैं भी जाती हूँ। मछलियों को देखों, जल से विलग होते ही तड़पने लग जाती हैं। उनकी तड़पन भी साधारण नहीं होती। वे तब तक तड़पती रहती हैं जब तक कि प्राण नहीं निकल जाते। यह भी बात नहीं कि तड़प-तड़प कर बहुत लम्बे समय तक जीवन धारण करती हों, कुछ क्षण में उनकी तड़पन इतनी बढ़ जाती है कि बस शान्त हो जाती हैं। जल का तनिक भी वियोग उनसे सहन नहीं हो सकता। एक मैं हूँ। तड़पती तो मैं भी हूँ, किन्तु केवल तड़पती भर हँ३। मेरी तड़पन में उतना वेग नहीं जो दुःख से छुटकारा दिला सके। इतने दिनों से व्यर्थ ही जी रही हैं। तो क्या करूं? मृत्यु के पास चली जाऊँ ? आत्महत्या कर लूँ ? नहीं नहीं। आत्महत्या महापाप है। पाप-पुण्य की तो कोई बात नहीं, आत्महत्या करने से मिलेगा क्या? यदि कोई यह विश्वास दिला दे कि ऐसा करने से कन्हैया मिल जायेंगे तो आत्महत्या करने में क्षण भर की देर न लगेगी। संकेत-किन्तु पापी प्राण.....'नोत्क्रामन्ति हताशाः प्राणाः ( न मञ्चन्ति मां प्राणहतकाः, नोपरमति हतजीवितम् ) / जब तुम्हीं.... क्यों करने लगीयदा त्वमेव नाभ्युपपद्यसे मां तदा कृतान्तः किं न्वम्युपपत्स्यते ? तड़पने लग जाती हैं-प्रव्यथिता भवन्ति-कुछ क्षणो में..'' 'हो पाती हैं-करपि तस्तथा प्रकृष्यते तद्व्यथा यथाऽकालहीनमेवोपशाम्यन्ति / इतनों दिनों से..... 'इमानि दिवसानि मोघमेव जीवामि / यहां द्वितीया विभक्ति के प्रयोग के लिये विषय-प्रवेश में कारक-प्रकरण देखो। इसमें रघुवंश का-इयन्ति वर्षाणि तया सहोग्रमभ्यस्यतीव व्रतमासिधारम् (13 / 67 ) प्रयोग भी 1-1 अद्य गणरात्रं गतं तस्य दृष्टस्य, ( अद्याहर्गणो गतस्तस्य दृष्टस्य ) / 2-2 अहं त्वन्यादृशी / 3-3 अहमपि व्यथे, परं व्यथ एव केवलम् /
SR No.032858
Book TitleAnuvad Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharudev Shastri
PublisherMotilal Banarsidass Pvt Ltd
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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