SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ओर नहीं देखना चाहिए। वास्तव में 'कारक' वही नहीं जिसे हम क्रिया के व्यापार को देखकर समझते हैं, परन्तु का कौन सा कारक है इसका ज्ञान शिष्टों अथवा प्रसिद्ध ग्रन्थकारों के व्यवहार से ही होता हैं ( विवक्षातः कारकाणि भवन्ति / लौकिकी चेह विवक्षा न प्रायोक्ती ), इसलिए छात्रों का संस्कृत व्याकरण का ज्ञान, अथवा उनका अपनी बोल चाल की भाषा का व्यवहार उन्हें शुद्ध संस्कृत व्यवहार के ज्ञान के लिए इतना उपयोगी नहीं जितना कि संस्कृत साहित्य का बुद्धिपूर्वक परिशीलन / ___ संस्कृत में सब प्रकार के यान वा सवारियाँ जिनमें शरीर आदि के अंग, जिन्हें यान ( सवारो ) समझा जाता है-भी सम्मिलित हैं 'करण' माने जाते है। यद्यपि वे वस्तुगत्या निर्विवाद रूप से 'अधिकरण' हैं। ग्रन्थकारों की ऐसी ही विवक्षा है, जहाँ हिन्दी में हम कहते हैं-'वह रथ में आता है' वहाँ संस्कृत में-'स रथेनायाति' ऐसा ही कहने की शैली है। जहाँ हिन्दी में हम कहते हैं--वह कन्धे पर भार उठाता है। वहाँ संस्कृत में हमें 'स स्कन्धेन भारं वहति' यही कहना चाहिए। रथादि की करणता ( न कि अधिकरणता ) ही भगवान् सूत्र-कार क अभिमत है, इसमें अष्टाध्यायी-गत अनेक सत्र ही प्रमाण है-- 'वह्य वरणम् / (3 / 1 / 102), दाम्नीशसयुयुजस्तुतुदसिसिचमिहपतदशनहः करणे ( 3 / 2 / 182 ), चरति (4 / 4 / 8 ) / वहन्त्यनेनेति वह्यशकटम्, पतत्युड्डयतेऽनेनेति पत्त्रं पक्षः। पतति गच्छत्यनेनेति पत्त्रं वाहनम् / * शकटेन चरतीति शाकटिकः / हस्तिना चरतीति हास्तिकः / ' इस विषय में कुमारसम्भव तथा किरात में से नीचे दी हुई पंक्तियों पर ध्यान देना चाहिए-यश्चाप्सरोविभ्रममण्डनानां सम्पादयित्रीं शिखरैबिभर्ति........( धातुमत्ताम् ), मध्येन सा वेदिविलग्नमध्या वलित्रयं चारु वभार बाला (कुमार), गुणानुरागेण शिरोभिरुह्यते नराधिपॉल्यमिवास्य शासनम् ( किरात ), गामधास्यत्कथं नागो मृणालमृदुभिः फणः ( कुमार ), तथेति शेषामिव भर्तुराज्ञामादाय मूर्ना मदनः प्रतस्थे ( कुमार ) / इन उदाहरणों से संस्कृतं के व्यवहार की एकरूपता निश्चित होती है। ___ कहीं 2 वस्तुसिद्ध करणत्व की उपेक्षा की जाती है, और साथ ही कारकत्व की भी। केवल सम्बन्ध मात्र की ही विवक्षा होती है। 'अनुकामं तर्पयेथामिन्द्रावमण राय आ' ( ऋ० 1 / 17 / 3 // * दिशः पपात पस्त्रेण वेगनिष्कम्पकेतुना ( रघु० 15185 // ) + इस विषय पर हमारी कृति प्रस्तावतरङ्गिणी में निबन्ध पढ़िये /
SR No.032858
Book TitleAnuvad Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharudev Shastri
PublisherMotilal Banarsidass Pvt Ltd
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy