SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 180 ) विष्णुदत्त-तो देव, क्या तुम्हारे विचार में एक हिन्दू के लिये संस्कृत का मज्ञान शोभा देता है ? देवदत्त-पर इससे विपरीत क्यों हो? विष्णुदत्त--सुनो, ऐसे क्यों नहीं हो सकता। संस्कृत के ज्ञान से रहित हिन्दू को अपने धर्म का स्वतः परिचय नहीं होता। वह हिन्दू संस्कृत के वास्तविक स्वरूप को नहीं जान सकता, और वह अपने आचरण को तदनुसार बना नहीं सकता। पूर्वी तथा पश्चिमी विद्वानों के अनुसार 'हिन्दू' हो और संस्कृत से अनभिज्ञ हो--यह परस्पर विरुद्ध है। इससे यह परिणाम निकला कि एक हिन्दू के लिये संस्कृत न जानना, न केवल अनुचित ही है, प्रत्युत विशेषकर लज्जास्पद है। संकेत-देवदत्त-क्या तुम कृपया"...""उच्यतां कोऽसौ गुणविशेषः संस्कृते य इयतीमभिरुचिं जनयतीति / विष्णुदत--इसके विशेष माधुर्य ...."सर्वातिशायिनी (सर्वातिरिक्ता) माधुरी स्फटिकाच्छा चास्य रचना मामत्यन्तमावर्जयतः / / . विष्णुदत्त-देव, क्या तुम यह"""""क्या अनुवाद में (मूल ग्रन्थों का) संस्कृत का असली' 'सौन्दर्य "किं भाषान्तरेषु शक्यं मूलग्रन्थस्य चारुता स्वरसश्चाक्षतं रक्षितुम् / यहाँ "शक्यम्' नपुंसक लिंग एक वचनान्त है। जिस कर्म को यह कह रहा है वह एक नहीं, परन्तु दो हैं-चारुता और स्वरस, जिनमें पहला स्त्रीलिंग और दूसरा पुल्लिग है। तदनुसार यहाँ (नपुं० द्वि०) 'शक्ये' होना चाहिये था। पर जब सामान्य से बात प्रारम्भ की जाय, किसी विशेष पदार्थ का मन में ध्यान न हो, तो 'शक्य' शब्द का न० एकवचन में प्रयोग निर्दोष माना जाता है, पीछे अपेक्षानुसार जिस किसी लिंग व वचन में 'कर्म' रख दिया जाता है। इस पर वामन का सूत्र है-"शक्यमिति रूपं कर्माभिधायां विलिङ्गवचनस्यापि सामान्योपक्रमात् / " इसके कतिपय उदाहरण दिये जाते हैं दृशंसेनातिलुब्धेन शक्यं पालयितुं प्रजाः (महा० भा० शा०प०) नहि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः (गीता) शक्यमञ्जलिभिः पातुं वाताः केतकगन्धिनः (रामायण), शक्यं हि श्वमांसादिभिरपि क्षुत् प्रतिहन्तुम् (महाभाष्य), शक्यमरविन्दसुरभिः"......"प्रालिङ्गितुं पवनः (शाकुन्तल)।
SR No.032858
Book TitleAnuvad Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharudev Shastri
PublisherMotilal Banarsidass Pvt Ltd
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy