SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 76 जैन साहित्य का समाजशास्त्रीय इतिहास राजकीय आमोद प्रमोद पुराणों के कथानक राजाओं के आमोद-प्रमोद का वर्णन करते हैं जो राजकीय जीवन में व्यवहृत होने वाले आमोद-प्रमोदीय पद्वतियों का विश्लेषण करते हुए तत्युगीन जीवन में व्यवहृत होने वाली पद्धतियों की ओर प्रच्छन्न रुप से संकेत करते हुए पाये जाते है। प्रमदोद्यान में झूला, कृत्रिम कीड़ा पर्वत, वृक्षों के झुरमुट, सरोवर मनोविनोद हेतू बनाये जाते थे / वेश्या, नृत्यकार, बन्दीजन, चारण एंव भाटों का मनोरंजन के साधन के रुप में उल्लेख हुआ है। राजाओं की शिक्षा राज्यतन्त्र के अन्तर्गत युवराजों की शिक्षा का प्राविधान मिलता है। उन शिक्षाओं का यथोचित ज्ञान प्राप्त किये बिना वह न तो राज्यपद का अधिकारी होता था और न ही राजपद के संचालन में अपने को सक्षम पाता था। प्रशासकीय गुण एंव ज्ञान के अभाव में अनेक राजाओं का राजपद एंव जीवन से हाथ धोने के दृष्टान्त प्राप्त होते है१०२ | आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता एंव दण्डनीति के साथ धर्मशास्त्र, कामशास्त्र धर्मतन्त्रर हस्तितन्त्र, छंद, आयुर्वेद, तन्त्र, मंत्र, ज्योतिष आदि विद्याओं का ज्ञान आवश्यक होता था०४ | इनके द्वारा ही वह पुरुषार्थो की प्राप्ति एंव शासन को सुचारु रुप से चला सकता था०५ | राजा के कर्तव्य राज्यपद की उत्पत्ति के मूल में कर्तव्य की भावना सभी परम्पराओं के सिद्धान्तों में समान रुप से सन्निहित है। राज्यपद के उद्गम के साथ ही साथ राजाओं के कर्तव्यों की जो परम्परा प्रारम्भ होती है वह पूर्वमध्ययुगीन राजाओं के जीवन से भी सम्बद्ध रही है। सभी जैन पुराण राजा के कर्तव्यों पर थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ प्रकाश डालते हैं। प्रजापालन, प्रजारक्षण एंव प्रजारंजन राजा के आवश्यक कर्तव्य थे०६ / दुष्ट पुरुषों का निग्रह एंव शिष्ट पुरुषों की रक्षा उसका धर्म था | नगरनिर्माण प्राचीन वस्तुओं का रक्षण, अपराधियों को दण्ड, न्यायपूर्वक कर वसूल करना, एंव युवराजों के, राजपद के योग्य हो जाने पर आत्मिक चिन्तन एंव दीक्षा धारण कर मोक्ष साधन में अपने को लगा लेना राजाओं के कर्तव्य थे / अनेक सामन्तों, गुप्तवरों, लेखवाहक, दूतों तथा अन्य प्रशासकों द्वारा राज्य की स्थिति से अवगत होकर अपने व्यवहार का निर्णय किया करता था०६ | अपने गुणों एंव कर्तव्यों के पालन से राजा देवतुल्य समझे जाते थे। मंत्रि परिषद . राजकीय कार्यों में राजा को सहयोग देने एंव विचार विमर्श करने हेतू
SR No.032855
Book TitleJain Sahitya ka Samajshastriya Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Agarwal
PublisherClassical Publishing Company
Publication Year2002
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy