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________________ 212 जैन साहित्य का समाजशास्त्रीय इतिहास मान्यताओं के आ जाने पर भी इन भावनाओं के विपरीत सांख्य में विधेय हिंसा को भी वस्तुभूत हिंसा मानकर” अधर्माचरण माना गया है। महर्षि पतज्जलिं द्वारा भी अहिंसा की व्याख्या की गयी है। सत्य ___जैन धर्म के ये पंच महाव्रत योगदर्शन के प्रवर्तक पतज्जलि द्वारा बताये गये पॉच यमों से पूर्ण रुपेण मिलते हैं। महावीर स्वामी के योग का दूसरा आधार सत्य है। असत्य को अनृत कहा गया है। पातज्जंलि योगदर्शन के अनुसार सत्य में सुदृढ़ स्थिति हो जाने पर योगी की वाणी से कभी असत्य निकलता ही नहीं। उसके अन्तःकरण से वही बात निकलती है जो कियारुप में परिणित होने वाली हो। महावीर की वाणी भी सत्यव्रत थी उनके वचन त्रिकाल सत्य रहे। योगदर्शन की भॉति ही जैनधर्म के अन्तर्गत वह सत्य भी असत्य है जो दूसरों को दुःख अथवा अहित करने वाला हो। अस्तेय महावीर स्वामी की पातज्जलयोग दर्शन के समान ही अस्तेय में सुदृढ़ आस्था थी। अस्तेय में प्रतिष्ठित व्यक्ति राग को पूर्णतया त्याग देता है। इसी कारण वह संसार की समस्त सम्पत्तियों का स्वामी बन जाता था। इसी तरह महावीर स्वामी चारों ओर राजवैभव होने पर भी बैराग्य की ओर प्रवृत्त थे लेकिन वे संसार के वैभव से सम्पन्न थे। यह अस्तेय ही उनके योग का तीसरा माध्यम था। ब्रह्मचर्य काम वासनामय प्रवृत्तियों में रत रहना अव्रह्मचर्य है एंव उससे परे रहना ब्रह्मचर्य है। महावीर स्वामी ने राजसी वैभव का त्याग कर यावत् जीवन ब्रह्मचर्य व्रत पालन किया। ब्रह्मचर्य उनके योग का चौथा माध्यम था। पातंजल योगदर्शन में कहा गया है कि योगी में ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठित हो जाने पर उसे अपरिमित वीर्यलाभ प्राप्त होता है। महावीर ने वीर्यलाभ द्वारा शारीरिक मानसिक एंव आत्मिक शक्तियों को प्राप्त कर “महावीर" पदवी. को धारण किया था उनका वास्तविक नाम वर्धमान था। अपरिग्रह संसार के समस्त पदार्थो में आसक्ति भाव रखना परिग्रह है एंव परिग्रह का त्याग, अनासक्ति भाव से रखना अपरिग्रह है। महावीरस्वामी के योग के पांचवे
SR No.032855
Book TitleJain Sahitya ka Samajshastriya Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Agarwal
PublisherClassical Publishing Company
Publication Year2002
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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