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________________ 180 जैन साहित्य का समाजशास्त्रीय इतिहास समनश्राविका कहा जाता था। गनिन् शब्द सुशिक्षित शिष्य के लिए कहा गया है जो इनके सम्मान का सूचक था२७३ | ... धीरे-धीरे इन संघों का प्रान्तीय संगठन होने लगा ये संघ गण नाम से प्रसिद्ध थे, गणों में कई कुल होते थे इन कुलों की कई शाखायें होती थीं। इसके अतिरिक्त ये धार्मिक संघ सम्भागों में विभाजित थे। भगवान महावीर के पश्चात् जैन संघ में सम्प्रदाय भेद होता है। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों के दिगम्बर श्वेताम्बर सम्प्रदाय भेद के अर्द्धऐतिहासिक उपाख्यान हरिभद्र एंव शान्तिसूरि की टीकाओं में मिलते हैं। जैन संघों के कार्यों का केन्द्र जब मथुरा से गुजरात एंव राजपूताना की ओर बढ़ता है तब असंख्य गच्छों का उदय होता है। इनमें बहुत से क्षेत्रीय रुप में उत्पन्न हुए। गच्छों का विकास शिष्यों एंव प्रशिष्यों के रुप में भी हुआ, इसी कारण मध्यकाल में दक्षिण भारत में कुछ नये संघों और उनकी नई शाखाओं - गण, गच्छ, अन्वय एंव बलियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। अभिलेखीय साहित्य से ज्ञात होता है कि दक्षिण भारत में सर्वप्रथम भद्रवाहु द्वितीय आये थे और जैनधर्म का प्रारम्भ इनके द्वारा ही हुआ७४ | शिलालेखों से चौथी पांचवी शताब्दी में दक्षिण भारत में जैनसंघ के विशाल दो सम्प्रदाय-श्वेतपट महाश्रमण संघ एंव निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ के होने की जानकारी होती है७५ | निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ की स्थापना भद्रवाहु द्वितीय द्वारा किये जाने के उल्लेख प्राप्त होते हैं२७६ | निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग महावीर एंव उनके अनुयायी सम्प्रदाय मात्र के लिए किया जाता था। इस सम्प्रदाय के आचार्यो के नाम पर भूमि, ग्राम आदि दान में दिये जाते थे२७७ / इसके पश्चात् कालीन शिलालेखों में निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है और इसके स्थान पर ५वीं शताब्दी ई० में मूल संघ का उल्लेख प्राप्त होता है२७८ / सम्भवतः दक्षिण भारत में श्वेताम्बर सम्प्रदाय को दिगम्बर सम्प्रदाय से भिन्न स्पष्ट करने के लिए मूल संघ का प्रयोग किया जाने लगा। मूल संघ __ मूल संघ का सर्वप्रथम उल्लेख चौथी पांचवी शताब्दी में प्राप्त होता है। शिला लेखों से मूल संघ के अन्तर्गत गण गच्छ एंव अन्वय, बलि की जानकारी सांतवी शताब्दी (687 ई०) के लेखों से होती है२८१ / लेखों से मूलसंघ के देवगण, सेनगण, देशियगण, सूरस्थगण, कानूरगण एंव बलात्कार गण की जानकारी होती हैं। इन गणों का नामकरण : सम्भवतः आचार्यो के नामान्तर शब्दो अथवा प्रान्त स्थान के नामों के आधार पर किया गया है।
SR No.032855
Book TitleJain Sahitya ka Samajshastriya Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Agarwal
PublisherClassical Publishing Company
Publication Year2002
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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