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________________ अभिलेख 163 आश्रम व्यवस्था __ जैन अभिलेखों में आश्रम व्यवस्था का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता लेकिन प्राप्त वर्णनों से ब्रहमचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम एंव सन्यासाश्रम के स्वरुप की जानकारी होती है। लेखों में मन्दिरों में पट्टशाला निर्माण कराने, अध्ययन कार्य होने एंव विद्यार्थियों पर होने वाले व्यय के प्रबन्ध हेतू भूमिदान के उल्लेख ब्रह्मचर्याश्रम के समान स्वरुप की और संकेत करते हैं | जैनधर्म श्रावक एंव मुनि इन दो धर्मों में विभक्त है जिसमें रहकर जैनधर्म के आचार-विचारों एंव सिद्धान्तों का पालन किया जाता था।४ | गृहस्थ भी जैनाचार्यो के शिष्य होतेथे५ | दानादि कार्य गृहस्थों द्वारा ही सम्पन्न किये जाते थे जो गृहस्थाश्रम की महत्ता पर प्रकाश डालते है। लेखों से ज्ञात होता है कि परिपक्व अवस्था आने पर राजा राज्य छोड़कर जंगल में चले जाते एंव गृहस्थ भी संसार को नाशवान् जानकर मुनिधर्म को ग्रहण कर लेते थे६ | इस अवस्था में धर्म के सिद्धान्तों का कठोरता से पालन करता हुआ त्रयरत्नों की प्राप्ति के प्रयत्न करता था। लेखों से इन भिक्षुओं को आहार दान देने एंव भिक्षुओं द्वारा जैन धर्म के सिद्धान्तों के उपदेश करने की जानकारी होती है | मुनि आचार व्रत का धारण करना वानप्रस्थ अवस्था के स्वरुप को स्पष्ट करता है। जैन मुनियों एंव राजाओं द्वारा सन्यासव्रत करने के उल्लेख स्पष्टतः सन्यासाश्रम को इंगित करते हैं। सन्यासव्रत को ग्रहण कर लेन पर द्वादश प्रकार का कठोर तप, समिति गुप्ति व्रत का पालन करना आवश्यक था। इसी अवस्था में केवल ज्ञान प्राप्त कर समाधि-मरण करने की जानकारी होती है जिससे मोक्ष प्राप्त होता था। ' संस्कार जैन समाज में संस्कारों का रुप अत्यन्त विस्तृत पाया जाता है। जैन अभिलेखों में संस्कारों के सम्बन्ध में उल्लेख प्राप्त नहीं होते किन्तु दानादि के प्रकरण में कुछ संस्कारों के नाम प्राप्त होते हैं। सांतवी शताब्दी के पश्चात् के लेखों में जातकर्म, नामकर्म,उपनयन, विवाह एंव श्राद्ध संस्कार का उल्लेख प्राप्त होता है। पुत्र जन्म पर जातकर्म एंव नामकरण संस्कार के अवसर पर राजाओं द्वारा दान देने के उल्लेख प्राप्त होते हैं / वैवाहिक सम्बन्धों एंव समाधिमरण द्वारा प्राणत्याग करने पर उनकी निषद्या बनाये जाने से विवाह एंव श्राद्ध संस्कार की जानकारी होती है। उपनयन संस्कार का विशेष महत्व था२ | विवाह लेखों में प्राप्त उल्लेखों से विवाह के स्वरुपों की जानकारी होती है। विभिन्न राजवंशों के बीच वैवाहिक सम्बन्ध होते थे जिनका उद्देश्य आपस में मैत्री
SR No.032855
Book TitleJain Sahitya ka Samajshastriya Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Agarwal
PublisherClassical Publishing Company
Publication Year2002
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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