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________________ चरितकाव्य 141 गति प्राप्त करने वाला बतलाया गया है। मनुष्य एंव तिर्यच गति को प्राप्त जीव अपने सत्कर्मो से देव गति एंव दुष्कर्मो से नरक गति को प्राप्त करता है३४० / मुनियों ने नरक की पॉच गति बतलायी है३४१ जिन्हें जीव अपने कर्मो के भेद के अनुसार प्राप्त करता हे। नरक में प्राप्त दुःख एंव दण्ड विधान कर्मो के अनुरुप ही प्राप्त होते हैं४२ / देवगति में भी स्वामी के स्वामित्व में बंधे रहने एंव आपस में लड़ने से दुःख प्राप्त होने की जानकारी होती है३४३ / कर्मो के अनुरुप मनुष्य एंव तिर्यंच जीव एकेन्द्रिय गति तक में जाते हैं३४४ / इस तरह जैन दर्शन में मानव जाति से लेकर पेड़ पौधे पशु तक सूक्ष्म कायिक जीवों से लेकर स्थूलकायिक समस्त जीवों का वर्णन प्राप्त होता है। अजीव द्रव्य __ चैतन्य गुण से रहित जीवों को अजीव कहा जाता है। ये पॉच प्रकार के पुद्गल द्रव्य अजीव द्रव्यों के अन्तर्गत मूर्तिमान पदार्थो को पुद्गल द्रव्य एंव अमूर्तिमान पदार्थो को अन्य अजीव द्रव्य / जैन शास्त्रों में पुद्गल का लक्षण रुप, रस, गन्ध एंव स्पर्श बतलाये गये हैं। इन चारों लक्षणों की कुछ न कुछ मात्रा में धारण करने के जानकारी होती है। स्थूलतम रुप पर्वतों एंव पृथ्वी के रुप में एंव सूक्ष्मतम रुप परमाणु में है। इन परमाणुओं के योग से ही पुद्गल के ये विभिन्नरुप बनते एंव गुण उत्पन्न होते हैं३४७ | शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, आकार, खण्ड, अन्धकार, छाया, चॉदनी एंव धूप को पुद्गल का पर्याय कहा गया है। क्योंकि ये सभी इन्द्रिय ग्राह्य है | ज्ञानावरणादिक आठ कर्म, कौदारिक, वैकियक आदि पॉच प्रकार का शरीर, मन वचन प्रवृत्ति सभी सांसारिक जीव पुद्गल द्रव्य में व्याप्त हैं३४६ / 2-3 धर्म एंव अधर्म द्रव्य इन्हें स्वतन्त्र द्रव्य माना गया है जो जीव एंव पुद्गल द्रव्यों को क्रमशः चलने एंव रोकने में सहायता देते हैं३५० / ये दोनों आकाश की तरह अमूर्तिक समस्त लोक व्यापी एंव असंख्यात प्रदेश युक्त एंव रुप, रस, गन्ध, स्पर्श शब्द आदि से रहित अखण्डित हैं३५१। आकाश द्रव्यर५२ आकाश द्रव्य को अमूर्तिक एंव विश्वव्यापी बतलाया गया है जो अन्य सभी
SR No.032855
Book TitleJain Sahitya ka Samajshastriya Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Agarwal
PublisherClassical Publishing Company
Publication Year2002
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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