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________________ कथा साहित्य 105 गये। पूर्वमध्ययुगीन समाज पूर्ण रुपेण विधटनकारी प्रवृत्तियों से पूर्ण रहा है इन प्रवृत्तियों को समाप्त कर समाज में एक नये जीवन संचार करने का प्रयास जैन कथा साहित्य में मिलता है। जैन कथाओं से ज्ञात होता है कि जनसाधारण का जीवन संगठित एंव सुव्यवस्थित था राजा प्रजा को पुत्र के समान मानता था, प्रजा अपनी रुचि के अनुसार ही अपना जीवन यापन करती थी | उत्सर्पिणी युग में सभी मनुष्यों की इच्छाएं कल्पवृक्षों द्वारा पूर्ण होती थी इस आदर्श को पूर्वमध्ययुगीन जीवन के आदशों से जोड़ने का प्रयास किया गया है। वर्ण व्यवस्था जैन कथा साहित्य के सम्यक् अवलोकन से ऐसा ज्ञात होता है कि वर्णव्यवस्था का आधार कर्म था। इस समय तक जैनव्यवस्था के अन्तर्गत भी चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को स्वीकार कर लिया गया। श्रमण-परम्परा के सभी धर्म सम्प्रदायों में कर्म की प्रधानता को स्वीकार किया गया है। कर्मत्याग से जातिच्युत होने की परम्परा हिन्दू धर्म में प्रचलित रही। राज्यव्यवस्थाकारों के अनुसार सभी वर्गों के लोगों को अपने अपने वर्णानुसार कमों में प्रवृत्त कराना राजा का कर्तव्य माना जाता था। आधुनिक समाजशास्त्रियों के अनुसार किसी व्यवस्थित समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों का विभिन्न प्रकार के कार्यो में निष्णात होना आवश्यक माना गया है अन्यथा सामाजिक व्यवस्था का चलना सम्भव नहीं होगा क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का प्रत्येक प्रकार के कार्यो में निष्णात होना असम्भव है। इस व्यवस्था को उल्लंधन करने पर व्यक्ति को दण्डित किया जाता था, साथ ही वह राज्य से निकाल दिया जाता था | चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के अन्तर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एंव शूद्र में क्षत्रियों को उच्च स्थान प्राप्त था। आदि तीर्थकर ऋषभ देव ने तीन वर्णों की रचना की थी भरत ने व्रत संस्कार की अपेक्षा कर ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की | षट्कमों के साथ साथ ब्राह्मण को कृषिकर्म करने की अनुमति प्राप्त थी | वैश्य स्थल एंव जलमार्ग दोनों ही के द्वारा व्यापार करते थे। कथाओं से व्यापार में आने वाली कठिनाइयों को सहन करके धनोपार्जन की जानकारी होती है / शासन से सम्बन्धित एंव प्रजा की रक्षा में तत्पर क्षत्रिय वर्ण मषि द्वारा जीविका चलाते थे। विवाह जैन धर्म में भी विवाह को एक धार्मिक संस्कार माना जाता है। यह किसी विशेष शर्त पर आधारित न होकर जन्म-जन्मान्तरों का अटूट बन्धन माना गया है इसके साथ ही कुछ वगों में विवाह को एक समझौता माना गया है, जिसमें कि
SR No.032855
Book TitleJain Sahitya ka Samajshastriya Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Agarwal
PublisherClassical Publishing Company
Publication Year2002
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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