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________________ जैन साहित्य का समाजशास्त्रीय इतिहास 88 एकाग्रता धारण की जाती है 47 मुनि तप द्वारा योग साधना में प्रवृत्त होते / तीर्थकर महावीर ने योग में प्रवृत्त होने से पूर्व बाह्य एंव आभ्यन्तर दोनों प्रकार के तप किये थे / हरिवंश पुराण में महावीर द्वारा आतापन योग से आरुढ़ होने का उल्लेख मिलता है। पुराणों में योगासनों का भी उल्लेख मिलता है। जैन परम्परानुसार विषम आसन में बैठने से मन में एकाग्रता नहीं आ पाती है५१ | पर्यकं एंव कायोत्सर्ग नामक आसन को सुखासन माना गया हैं मन वचन तथा काय का निग्रह करना एंव शुभाशुभ की भावना रखना प्राणायाम कहलाता है। धर्म तीर्थ के प्रवर्तक जैन तीर्थकरों की मूर्तियाँ पद्मासन एंव खडगासन में भी पायी जाती है। ये आकृतियॉ आत्मध्यान में लीन योगी की तरह ही हैं। भगवद्गीता में भी योगाभ्यासी का वर्णन मिलता है५२ | योग के विभिन्न आसनों की तरह ही समाधान, अध्ययन, धारणा, ध्येय और ध्यान इत्यादि भी योग के अंग है। योग की परम्परा का विकास जैन भिक्षुओं की तपस्यापरक प्रवृत्तियों से ही हुआ। ध्यान तप में आने वाली बाधाओं एंव चित्त की शुद्धि के लिए ध्यान नामक किया की जाती थी। जैन परम्परा में ध्यान के चार भेद बतलाये गये हैं - धर्म, शुक्ल, आर्त एंव रौद्र ध्यान / धर्म एंव शुक्ल ध्यान को मोक्ष का कारण होने के कारण इन्हें प्रशस्त माना गया है। इन्द्रियों तथा रागद्वेषादि भावों से मन का निरोध करके धार्मिक चिन्तन में लगातार जैन भिक्षु धर्मध्यान करते थे। आज्ञाविचय, उपाय विचय, विपाक विचय एंव संस्थान विचय के भेद से धर्म ध्यान चार प्रकार का बतलाया गया है५३ | शुक्ल ध्यान केवल ज्ञान की चरम अवस्था में ही होता था। पृथक्त्व विचार तथा एकतत्व तर्क विचार के भेद से दो भागों में विभक्त किया गया है२५४ | धर्मध्यान की तरह ही शुक्ल ध्यान द्वारा कमशः आत्मा उत्तरोत्तर कर्ममल से रहित होकर अन्ततः मोक्ष पद प्राप्त करती है। आत्मा द्वारा शरीर का परित्याग होने पर सिद्धों के आत्मज्ञान का रुप धारण कर लेता है। प्रायश्चित मुनि आचार एंव श्रावक आचार का पूर्णरुपेण पालन न करने पर मुनियों एंव श्रावक श्राविकाओं द्वारा प्रायश्चित करने के उल्लेख प्राप्त होते हैं जिनमें निर्दोष मुनियों के साथ भोजन न करने, चर्या के लिए न जाने, पीछी, कमण्डलु अलग रखने एंव उपवासादि रखने आदि कृत्य किये जाते थे। जन पुराण विवेक, तप, छेद, परिहार एंव स्थापना द्वारा प्रायश्चित करने का अनुमोदन करते हैं५५ |
SR No.032855
Book TitleJain Sahitya ka Samajshastriya Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Agarwal
PublisherClassical Publishing Company
Publication Year2002
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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