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________________ 72 ज्ञानानन्द श्रावकाचार भ्रमर के समान होकर अवलोकन करता है तथा अत्यन्त मग्न होकर अपने को कृतकृत्य मानता है / यह न्याय ही है क्योंकि इसप्रकार तो नित्य नये नाना प्रकार के गरिष्ट भोजन मिलते हैं तथा नित्य नई युवती-स्त्रियाँ मिलती हैं / इसके सुख का क्या पूछना ? ऐसा सुख तो राजा को भी दुर्लभ है तब ऐसा सुख पाकर कौन पुरुष मग्न नहीं होगा ? होगा ही होगा / वे स्त्रियाँ कैसी हैं तथा कैसे हैं उनके पति ? __ स्त्रियों के तो अन्त:करण के परिणाम कैसे बनते हैं तथा पुरुष मोह मदिरा से मूर्छित हुये हैं, अत: इस अन्याय को मिटाने में कौन समर्थ है ? इस ही लिये आचार्य कहते हैं - हम तो इस विपरीतता को देखकर मौन होकर बैठे हैं / इसका न्याय तो विधाता ही करने में समर्थ है, हम नहीं / ऐसे गुरु का सेवन कर (लोग) परलोक में अच्छे फल की कामना करते हैं / उनका ऐसा करना ऐसा ही है , जैसे कोई पुरुष वंध्या के पुत्र के लिये आकाश कुसुमों का सेहरा गूंथ कर स्वयं के मरने के बाद उसकी शादि देखना चाहे, अथवा यश कीर्ति सुनना चाहे, इस सदृश्य उनका स्वरूप जानना। फिर (भक्त तथा गुरु) एक दूसरे की प्रशंसा करते हैं - आप हमारे सतगुरु हैं तथा (गुरु) कहता है - तुम हमारे पुण्यात्मा श्रावक हो / यह ऐसा ही है जैसे ऊंट का तो विवाह हो तथा गधा गीत गाने वाला हो / वे (गधे) तो कहें - वर का रूप तो कामदेव के सदृश्य है तथा वह ऊंट कहे - कैसे किन्नर जाति के देवों के कण्ठ सदृश्य राग में गीत हो रहे हैं / इस सदृश्य (अज्ञानी भेषधारी) श्रावक गुरुओं की शोभा जानना।। ___यहां कोई कहे - घर के (अपने स्वयं के दिगम्बर भेषधारी) गुरुओं की दशा का तो वर्णन किया पर श्वेताम्बर आदि अन्य मतियों की दशा का वर्णन क्यों नहीं किया ? उनके बीच भी तो खोटे गुरु हैं / उन्हें कहते हैं - हे भाई ! यह न्याय तो तेरे मुख ही से हो चुका / जब ब्राह्मण के हाथ की बनी रसोई ही अशुद्ध ठहरी तो चांडाल आदि के हाथ की रसोई कैसे शुद्ध होगी ? इसप्रकार जानना /
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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