________________ 70 ज्ञानानन्द श्रावकाचार गृहस्थ को एक श्लोक भी प्रीति पूर्वक सिखाते नहीं हैं, मन में ऐसा विचार करते हैं कि कदाचित इसे ज्ञान हो जावेगा तो हमारे अवगुण इसे प्रतिभासित हो जावेंगे, तब फिर हमारी आजीविका नष्ट हो जावेगी / ऐसे निर्दय अपने स्वार्थ के लिये जगत को डुबोते हैं / धर्म तो पंचम काल के अंत तक रहना है (रहेगा)। इसे “ला (मुझे भेंट) दे” यही वासना सदा बनी रहती है / जिन धर्म के आश्रय से आजीविका चलाता है / जैसे कोई पुरुष किसी प्रकार आजीविका चलाने में असमर्थ हो, तब अपनी माता को पीठे पर (मार्ग में अथवा बाजार में) बैठा कर आजीविका चलावे / जिनधर्म का सेवन कर सत्पुरुष तो मोक्ष की चाह रखते हैं, स्वर्गादि को भी नहीं चाहते हैं, तो फिर आजीविका चलाने की तो बात ही क्या? हाय, हाय ! हुंडावसर्पिणी काल दोष से इस पंचम काल में कैसी विपरीतता फैली है ? कालदुष्काल में गरीब का लडका भूखा मरता हो, दो -चार रुपयों (अल्प सी राशि) के लिये चाकर, गुलाम की भांति मोल बिक जाने के बाद निर्माल्य (इसका वर्णन पहले आ चुका है) खा-खाकर बडा हो, जिन-मंदिरों को अपने रहने का घर बना कर शुद्ध देव-गुरु-धर्म की विनय का तो अभाव करे तथा कुगुरु आदि के सेवन का अधिकारी होकर औरों को ऐसा ही उपदेश देने लगे। जिसप्रकार अमृत को छोडकर हलाहल विष का सेवन करे, चिन्तामणी रत्न को छोडकर कांच के टुकडों की चाह करे, अथवा कामदेव जैसे पति को छोडकर अंधे; बहरे, गूंगे, लूले, लंगडे, अस्पर्श शूद्र कोढी के साथ विषय सेवन कर अपने को धन्य माने तथा यह कहे कि मैं तो शीलवान पतिव्रता स्त्री हूं, पर ऐसी रीति तो कुत्सित वेश्याओं में ही पायी जाती है / ऐसी (विपरीतताओं ) का आसरा लेकर भी अंध जीव धर्म-रसायन चाहते हैं तथा अपने को पुजाकर महन्त मानने लगे हैं। अपने मुंह से (वह) ऐसा कहता है - मैं भट्टारक दिगम्बर गुरु हूं।