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________________ श्रावक-वर्णनाधिकार जिसको भेद-विज्ञान के द्वारा स्व-पर का विचार हुआ है तथा अपने को पर द्रव्य से भिन्न, शाश्वत, अविनाशी, सिद्ध के समान लोक को देखने वाला, आनन्दमय जाना है, उसके प्रसाद से सर्व प्रकार द्रव्यों से निवृत्त होना चाहता है, उसको सहज ही त्याग वैराग्य रूप भाव होते हैं / (वह) एक मोक्ष का ही इच्छुक है, उसे पर-द्रव्य से ममत्व कैसे हो ? यह धन महापाप क्लेश के द्वारा तो उत्पन्न होता है तथा अनेक उपाय कष्ट करके उसे अपने पास रखना पडता है, उसमें भी महापाप उत्पन्न होता है / उस (धन) को मान-बडाई के लिये अथवा विषय भोग सेवन के लिये अपने हाथ से खर्च करता है, जिसमें विवाह आदि की हिंसा के द्वारा एवं धन के नाश होने से महापाप व कष्ट उत्पन्न होता है। बिना दिये भी राजा अथवा चोर आदि छीन, लूट लेते हैं अथवा अग्नि से जल जाता है अथवा व्यन्तर आदि छीन लेते हैं अथवा स्वयमेव ही गुम हो जाता है अथवा विनश जाता है, उसके (उससे होने वाले) दुःख अथवा पाप बंध का क्या पूछना ? अतः सत्पुरुषों ने इस पर-द्रव्य का ममत्व करना हेय कहा है, किसी भी प्रकार उपादेय नहीं है / परन्तु स्वयं की इच्छा पूर्वक परमार्थ के लिये दान में दे, खर्च करे तो इस लोक में तथा परलोक में महासुख भोगे तथा देव आदि के द्वारा पूज्य हो / उसके दान के प्रभाव से त्रिलोक पूज्य जिनके चरण-कमल हैं ऐसे मुनिराजों का समूह भी दान के प्रभाव से प्रेरित हुआ, बिना बुलाये दातार के घर चला आता है। ___दान के समय वे दातार कैसे सुख को प्राप्त होते हैं तथा कैसे शोभित होते हैं ? वह बताते हैं :- मानों आज मेरे (दातार के) घर आंगन में कल्पतरु आया है अथवा कामधेनु आयी है अथवा चिन्तामणी पाई अथवा घर में नव निधियाँ मिली इत्यादि रूप सुख के फल उत्पन्न होते हैं। एवं त्रिलोक द्वारा पूज्य हैं चरण-कमल जिनके, ऐसे महामुनि के हस्तकमल
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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