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________________ 290 ज्ञानानन्द श्रावकाचार एक हजार रुपये का मालिक हो तथा कोई व्यक्ति उसकी बहुत सेवा पूजा करे जिससे वह बहुत संतुष्ट भी हो जावे तो ज्यादा से ज्यादा एक हजार रुपये दे देगा, ज्यादा देने की तो उसकी सामर्थ ही नहीं है / उसीप्रकार एकेन्द्रिय को पूजने पर एकेन्द्रिय होने रूप ही फल मिलेगा / गाय, हाथी, घोडे, बैल आदि को पूजने पर इन जैसे होने रूप ही फल मिलेगा, इससे अधिक कुछ मिले, यह तो नियम से संभव नहीं है। ___ कोई हाथ से लकडी काटकर उसे जलाकर उसी के चारों ओर चक्कर लगाकर उसी के गीत गाते हैं, उसे ही माता कहते हैं तथा मस्तक पर धूल राख; (भष्म) डालकर विपरीत होकर चांवल आदि खाकर काय की विकृत चेष्ठा रूप प्रवर्तेते हैं तथा माता-पिता, बहन, भावज आदि की शरम छोड कर नानाप्रकार से छोटे भाई की स्त्री इत्यादि अन्य स्त्रियों में जल-क्रीडा आदि अनेक प्रकार क्रीडा एवं कुचेष्ठायें कर आकुल-व्याकुल होकर महानरक आदि के पाप उपार्जित करते हैं तथा अपने को धन्य मानते हुये, महापाप करके भी शुभ फल चाहते हैं / ऐसा कहते हैं - हम होली माता को पूजते हैं, जो हमें अच्छा फल देगी / ऐसी विडम्बना जगत में प्रत्यक्ष देखी जाती है। ___ संसारी जीव ऐसा विचार नहीं करते कि ऐसा महापाप करके उसका अच्छा फल कैसे मिलेगा ? ये होली क्या वस्तु है, अब इसका स्वरूप कहते हैं - होली एक साहूकार की बेटी थी, वह दासी के निमित्त से परपुरुष में रत थी / वह उस पुरुष से निरन्तर भोग भोगती थी / एक बार होली के मन में यह विचार आया कि यह बात अन्य कोई तो जानता नहीं है एकमात्र दासी ही जानती है / यदि इसने किसी से कह दिया तो मेरा बहुत बुरा होगा, अत: इसे मार दिया जावे / ऐसा विचार कर उसने उस दासी को अग्नि में जला दिया, जो मरकर व्यंतरी हुई। व्यंतरी ने अपने अवधिज्ञान से पिछला सारा वृतान्त जाना एवं महाक्रोधित होकर नगर के सारे लोगों को रोग से पीडित किया / तब उस
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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