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________________ 280 ज्ञानानन्द श्रावकाचार चन्द्र सूर्यादि में तारण-तरण की विपरीत मान्यता आगे संसारी जीव चन्द्रमा तथा सूर्य को तारण-तरण देव मानते हैं / उनसे कहते हैं - जो चन्द्रमा तथा सूर्य जगत में दिखाई देते हैं, वे तो विमान हैं, वे अनादि-निधन शाश्वत हैं। इन पर चन्द्रमा तथा सूर्य (देव) अनन्त हो गये हैं / चन्द्रमा का विमान सामान्यपने एक हजार आठ सौ कोस चौडा है तथा सूर्य का विमान एक हजार छह सौ कोस चौडा है / ग्रह-नक्षत्र-तारों के विमान उत्कृष्ट तो पांच सौ कोस बड़े तथा जघन्य एक सौ पच्चीस कोस चौडे हैं एवं अर्द्ध नारियल के अथवा नगारे के आकार के हैं / उनकी नोक तो अधोलोक की ओर है तथा ऊपर की ओर समचौकोर (समतल) हैं। ये पांचों ही प्रकार के ज्योतिष विमान (चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारे) रत्नमय हैं तथा इनके ऊपर की ओर नगर बसे हैं / उन विमानों में बडे-बडे विस्तार वाले रत्नमय खाई, रत्नमय कोट, रत्नमय दरवाजे, रत्नमय बाजार, रत्नमय अनेक मंजिलें भवन स्थित हैं / उन नगरों में असंख्यात देव, देवांगनायें रहती हैं तथा उनके स्वामी ज्योतिष देव हैं / बारह वर्ष का राजपुत्र अथवा राजपुत्री जिसप्रकार शोभित होते हैं, उसी प्रकार ये देव-देवांगनायें शोभित होती हैं / उनका आकार मनुष्य का जैसे ही है पर अन्तर इतना है कि देवों का शरीर महासुन्दर रत्नों जैसा दिव्य, महा सुगंधित, कोमल तथा अनेक गुणों से संयुक्त होता है / सर पर मुकुट होता है / रत्नमय वस्त्र पहनते हैं, रत्नमय ही अनेक प्रकार के आभूषण पहनते हैं, रत्नमय अथवा महा सुगंधित पुष्पों (कल्पवृक्षों के पुष्पों) की माला पहनते हैं / उनके शरीर क्षुधा, तृषा आदि किसी भी प्रकार का रोग नहीं होता है। बाल दशा की ही भांति आयुबल (जब तक आयु है तब तक) पर्यन्त देव तथा देवांगनाओं के शरीर एक जैसे रहते हैं / भाव यह है कि देवों को बुढापा नहीं आता है /
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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